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________________ ६२४ अनेकान्त [ भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं० २४६५ नहीं होती है । जिनमें करना तो पड़े नाममात्रको बहुत है कि प्रजाके प्रबन्धके लिये उसके क्या क्या नियम हैं, थोड़ा ही और उससे भाशा होती हो बेहद फल-प्राप्ति- जिनके विरुद्ध चलनेसे वह दंड देना है और अनुकूल की। जिस प्रकार लाटरीका एक रुपयेका टिकिट लेनेसे प्रवर्तनसे सहायता करता है अर्थात् किन कार्योको वह पचास हजार व इससे भी ज्यादा मिलनेकी आशा बंध ईश्वर पाप बताकर न करनेकी भाशा देता है और किन जाती है। और अपने और अन्य अनेकोंको कुछ न कार्योंको पुण्य बताकर उनके करने के लिये उकपाता है। मिलने पर भी निराश न होकर फिर भी बार बार इस ही के साथ राजाके रूपके अनुकूल ही परमेश्वरकी टिकिट खरीदते रहनेकी टेव बनी रहती है, इसही प्रकार कल्पना करनेसे और परमेश्वरके अधिकार राजाके अधि किसी धार्मिक अनुष्ठानके करने पर भी उसके द्वारा कारोंसे कम व सीमित और नियमबद्ध स्थापित करने में अपना और अन्य अनेकोंका कार्य सिद्ध न होता देख- परमेश्वरके ऐश्वर्यमें कमी होजानेके भयसे उनको ईश्वरकर भी प्रश्रद्धा नहीं होती है किन्तु फिर भी बार बार की सर्वशक्तिमानता दिखानेके वास्ते यह भी खोल देना उस अनुष्ठानको करनेकी इच्छा बनी रहती है । लाटरीमें पड़ता है कि जिस प्रकार राजाको यह अधिकार होता जिस प्रकार लाखों मनुष्यों में किसी एकको धन मिलनेसे है कि वह चाहे जिस अपराधीको छोड़ दे, छोड़ना ही सब ही को यह आशा हो जाती है कि सम्भव है अब- नहीं किन्तु अपनी मौजमें उसको चाहे जो बख्श दे, की बार हमको ही लाख रुपयोंकी थैली मिलजावे, इसही प्रकार दीनदयाल परमेश्वरको भी यह अधिकार इसही प्रकार धर्म अनुष्ठानोंमें भी लाखोंमें किसी एकका है कि वह चाहे जिस अपराधीको क्षमा करदे और चाहे कारज सिद्ध होता देखकर चाहे वह किसी भी कारणसे जिसको जो चाहे देदे । उसकी शक्ति अपरम्पार है, हुनः हो, उस अनुष्ठानसे श्रद्धा नहीं हटती है किन्तु वह किसी नियमका बंधवा वा किसी बंधनमें बंधा जुएके खेलकी नरह आज़मानको ही जी चाहता रहता हुआ नहीं है, वह चाहे जो करता है और चाहे जो है। जिस प्रकार लाटरीका बहुत सस्तापन अर्थात् एक खेल खेलता है, इसही कारण कुछ पता नहीं चलता है रुपयेके बदले लाख रुपया मिलनेकी आशा असफल कि वह कब क्या करता है और क्या करने वाला है। होनेपर भी बारबार लाटरी डालनेको उकसाती है, इसही कारण लोग उन नियमों पर जो लोगोंके सदाइसही प्रकार इन धार्मिक अनुष्ठानोंका सुगम और चारके वास्ते ईश्वरके बनाये हुये बताए जाते हैं कुछ सस्तापन भी असफलतासे निराश नहीं होने देता है भी ध्यान न देकर बहुत करके उसकी बड़ाई गाकर किन्तु फिर भी वैसा करते रहनेके लिये ही उभारता है। नमस्कार और वन्दना करके तथा जिस प्रकार भेट देनेसे जिस प्रकार राजा अपने राज्यका प्रबन्धकर्ता होनेसे राजा लोग खुश होजाते हैं या हाकिम लोग डाली लेकर राज्यके प्रबन्धके लिये नियम बनाकर नियमविरुद्ध काम कर देते हैं, इसही प्रकार ईश्वर को भी भेट चलनेवालोंको अपराधी ठहराकर सज़ा देता है चढ़ाकर और बलि देकर खुश करनेकी ही कोशिशमें और नियम पर चलनेवालोंकी सहायता करता है, लगे रहते हैं । "मेरे भवगुण अब न चितारो स्वामी मुझे इसही प्रकार संसारभरका प्रबन्ध करनेवाले एक ईश्वर- अपना जानकर तारों" इसही प्रकारकी रट लगाये रखते की कल्पना करनेवालोंको भी यह ज़रूर बताना पड़ता हैं, इसही में अपना कल्याण समझते हैं और इस ही
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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