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________________ १४६ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६५ 'न की जा सके । लेकिन मेरी दृष्टि में यह धृष्टता कदापि वह मैंने किया ही,-श्रोत !"अब..१... क्षम्य नहीं ! मैं उसका परित्याग करता हूँ ! महिर्षी-पद दुर्गा-सी कठोर महारानी सिंहिका-जिनके तेजके पापिस लिया जाए !!' आगे शत्रुकी परछाई तक न टिक सकती थी-अविरलकिसकी ताब?-किसकी हिम्मत ? जो महाराजकी अाँसुत्रों से रो पड़ीं ! शत्रु-दलके सामने डटा रहनेवाला श्रांशाके खिलाफ जबान हिलाता ! साहस पानी बन चला ! पति-प्रेमके आगे वह हार सब चुप ! मान गई ! पौरुष, बल, कठोरता और धीरताके पटको राज-श्राश ! अटलनीय-राज-श्राशा !-और महा- फाड़कर नारीत्वकी कोमल-भावना प्रगट हो गई ! रांनी परित्यक्त करदी गई! वह रोने लगीं ! विवशताका श्रृंगार यही तो . है ! परित्यक्त-जीवन ! नीरस-जीवन !! मृत्युके ही तो (४) उपनाम हैं !!! दिन बीत रहे थे-- पर न अब उमंग शेष थीन उत्साह ! एक लम्बी निराशा, एक कसक, और प्रात्मग्लानि महारानीके 'वह मुझे भूल सकते हैं, लेकिन मैं उन्हें एक साथ थी ! उसका समग्र-वैमव, दरिद्र बन चुका था ! मिनिटको भी भूल सकूँ, यह असम्भव ! उनका तिरिउसकी 'श्राशा' का नाम अब 'पुकार' था ! उसके मुख- स्कार भी मुझे प्यारसे अधिक है। उनकी खुशी मेरा का तेज़ अब करुणत्व में परिवर्तित हो चुका था! स्वर्ग है ! उनकी तकलीफ़ मेरी मौत ! बोलो १-बोलो अब 'दिन' वर्ष बनकर उसके सामने आता है ! ...?- उन्हें क्या हुआ है ?--क्या कष्ट है ?--महाकभी-कभी यह सोचती है--'क्या नारीका जीवन सच- रानीके प्रेम-विव्हल हृदयने प्रश्न किया ! मुच दूसरे पर अवलम्बित है ?--उसका अपना कुछ भी 'दाह-रोग !'--सेविकाने परस्थिति सामने रखी !नहीं १ दूसरेकी खुशी ही उसकी खुशी है ! उसका 'अगणित-भिषग्वरोंने बहुमूल्य औषधियोंका सेवन निश्चित उद्देश्य ही नहीं १-कर्तव्य..?—यही कि कराया है ! लेकिन लाभके नामपर महाराजकी एक आँखें मूंदकर-दूसरेका अनुकरण करे ! फिर चाहे भी 'श्राह !'बन्द नहीं हुई ! जीवन-श्राशा संकटमें है ! किसीका कितना ही अनिष्ट क्यों न हो।... बड़ी वेदना है--उन्हें ! क्षण-भरको शान्ति नहीं !...." बाहरे, नारी-जीवन !... 'दाह-रोग ?... महाराजको कष्ट ?--जीवनमें इतना जटिल, इतना परतन्त्र !' सन्देह -महारानी कभी उसके विचार दूसरी-दिशाकी ओर बहते- हाँ ! ऐसी ही बात है !'-परिचारिकाने दृढ़ताके 'बड़ी गहरी-भूल हुई मेरी ! मुझे इन झगड़ोंमें पड़ना साथ कहा । क्षण-भर महारानी चुप रहीं ! आँखें मूंदें ही क्यों था ! मेरा इनसे मतलब ?-मुझे महाराजकी कुछ सोचती रहीं ! फिर बोलीप्राशाके अतिरिक्त और सोचना ही क्या ? यहीं तक है 'सखी ! प्रधान-सचिबसे कहो, अगर मेरा सतीत्व मेरा कार्यक्षेत्र !.."भागे बदनाहीतो अपराध था! निदोष है! महाराजके प्रति ही मेरा सारा प्रेम रहा है
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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