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वीर-शासनका महत्व
[ले०-कुमारी विद्यादेवी जैन 'प्रभाकर' ऑनर्स]
वीर प्रभुका शासन विशाल है। माधुनिक समयमें तोड़कर एक संसारी भारमा शुद्ध परम निरंजन, प्रवि
- इसकी मावश्यकता अधिकाधिक प्रतीत माशी,प्रजर,अमर, निकल सिद्ध परमात्मा बन जाता होती जारही है। पान संसारमें प्रशान्तिका साम्राज्य है। सिद्धालयमें परमात्मा परमात्मामें कोई भेद नहीं चहुँोर चारहा है । एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिको हरूप है। इस अपेक्षासे वीरका जैनधर्म ही प्राणी प्राणीमें करना चाहता है । एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रको नष्ट भ्रष्ट कर भेदभाव मिटानेवाला और सची समानता स्थापित अपने दासत्व में रखना चाहता है। यह सब स्वार्थान्धता करने वाला है। भाज संसार शाँति, स्वतन्त्रता तथा विषय-जम्पटता तथा कषाय-प्रबनताका ही फल है। समानताके लिये तड़प रहा है । इन तीनोंकी प्राप्तिके वीरशासन विषय-कवायकी बम्पटताको दुख:का कारण लिये जैनधर्मका मरिसावाद कर्मवाद, और साम्यवाद बताता है, अहिंसामय जीवनको सुखी बनाता है। एक प्रमोष उपाय है । वीरशासनका अनेकान्तवाद वीर भगवानका उपदेश है—प्राणी मात्रके प्राणोंको एवं स्याद्वाद जन-समुदायके पारस्परिक कलह और ईर्षाअपने जैसा जानो, स्वयं भानन्दमय जीवन बिताओ, को मिटाकर सबको एकताके सूत्रमें बाँधनेवाला है। दूसरोंको आनन्दपूर्वक रहने दो, पापोंसे भयभीत रहो, वीर-शासनके इन मौलिक सिद्धान्तोंका प्रचार व्यसनोंका परित्याग करो, विवेकसे काम तो और करनेके लिए योग्य व्यक्तियों तथा उचित साधनोंकी अपनी आत्माके स्वरूप को जानों, समको, श्रद्धाम मावश्यकता है। वीर भगवानके अनुयायियोंका कर्तव्य करो तथा उसके निज स्वभावमें रमण करो । वीर- है कि बीर-संदेशको प्राणी मात्रतक पहुँचाएँ और प्रत्येक शासन सरल है, चाहे बूढ़ा पालो चाहे जवाम, बी प्राणीको उसके अनुसार नैमधर्म पालनेका अवसर देखें। धारण करो चाहे पुरुष धनाज्य और रंग ऊँच तथा जिनधर्म संसारके दुखसे प्राणियोंको निकालकर उत्तम नीच सब ही अपने अपने पद और पोग्यताके अनुसार श्रेष्ठ सुखमें धरनेवाला है। यह धर्म मामाकी निजी वीरशासनके अनुयायी होकर अपने मात्माका कल्याण विभूति है-इस पर किसी खास समाज या जाति कर सकते हैं। वीर-शासम स्वतन्त्रताका पाठ पढ़ाने विशेषका मौस्सी हक नहीं है। मम सहित संशी पशुवालो है । वीरशासनका सेवक स्वयं पूज्य तथा सेन्य पक्षी, मनुष्य, देव नारकी भादि सभी जीव इसको बन जाता है।
प्रहबरके अपना कल्याणकर सकते हैं। परमपूज्य निश्चयनयसे प्रत्येक मारमा परमात्मस्वरूप है। श्रीमद् देवाधिदेव भगवान् महावीर अपने एक पूर्व भवमें अनादिकालसे खगेकर्म बन्धनोंको निज पुरुषार्थ द्वारा स्वयं सिंह थे, सद्गुके उपदेशका निमित्त मिलने पर