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________________ वर्ष २ किरण ३] आर्य और म्लेच्छ १८३ - देते हुए उन्हें 'म्लेन क्योंकि उनमें उक्त छह प्रकारके आर्योंका कोई इसके सिवाय, उक्तस्वरूप-कथन-द्वारा यद्यपि लक्षण घटित नहीं होता । इसीसे श्वे० विद्वान पं० अकर्मभूमक ( भोगभूमिया ) मनुष्योंको म्लेच्छों सुखलालजीने भी, तत्वार्थसूत्रकी अपनी गुजराती में शामिल कर दिया गया है, जिससे भोगभूमियोंटीकामें, म्लेच्छक उक्त लक्षण पर निम्न फुटनोट की सन्तान कुलकरादिक भी म्लेच्छ ठहरते हैं, हे म्लेच्छ' ही लिखा है... और कुलार्य तथा जात्यार्यकी कोई ठीक व्यवस्था ___श्रा व्याख्या प्रमाणे हैमवत आदि त्रीश भोग- नहीं रहती ! परन्तु श्वे०पागम ग्रन्थ ( जीवाभिगम भूमिश्रोमा अर्थात् अकर्म भूमिश्रोमा रहेनारा म्लेच्छो तथा प्रज्ञापना जैसे ग्रन्थ) उन्हें म्लेच्छ नहीं बतलातेज छे।" अन्तरद्वीपजों तकको उनमें म्लेच्छ नहीं लिखा; पएणवणा (प्रज्ञापना) आदि श्वेताम्बरीय बल्कि आर्य और म्लेच्छ ये दो भेद कर्मभमिज आगम-सिद्धान्त पन्थों में मनुष्यके सम्मृच्छिम मनुष्योंके ही किए हैं-सब मनुष्यों के नहीं; जैसा कि और गर्भव्युत्क्रान्तिक ऐसे दो भेद करके गर्भव्यु- प्रज्ञापना-सूत्र नं ३७ के निम्न अंशसे प्रकट है:क्रान्तिकके तीन भेद किये हैं-कर्मभूमक, अकर्म “से किं कम्मभूमगा ? कम्मभूमगा भूमक. अन्तरद्वीपज; और इस तरह मनुष्यों के पएणरसविहा पएणता, तं जहा-- पंचहिं मुग्य चार भेद बतलाए हैं *। इन चारों भेदोंका समावेश आर्य और म्लेछ नामके उक्त दोनों भंदों भरहेहिं पंचहिं एरावएहिं पंचहि महाविदेहेहिं; में होना चाहिये था; क्योंकि सब मनुष्यों को इन ते समासो दुविहा पएणत्ता, तं जहा-आयरिया दो भदोंमें बांटा गया है । परन्तु उक्त स्वरूपकथन- य मिलिक्खु य *" परसे सम्मृद्रिम मनुष्योंको-जो कि अंगुलके ऐसी हालतमें उक्त भाष्य कितना अपर्याप्त, असंख्यातवें भाग अवगाहनाके धारक, असंही. अपर्यातक और अन्तमुईतको आयु वाले होते कितना अधूरा, कितना विपरीत और कितना हैं-न तो 'आर्य' ही कह सकते हैं और न म्लेच्छ सिद्धान्तागमके विरुद्ध है उसे बतलानेको उम्रत ही; क्योंकि क्षेत्रकी दृष्टिसे यदि वे आर्य क्षेत्रवर्ति नहीं-सहदयविज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। मनुष्योंके मल-मूत्रादिक अशुचित स्थानों में उसकी ऐसी मोटी मोटी त्रुटियाँ ही उस स्वोपन. उत्पन्न होते हैं तो म्लेच्छ क्षेत्रवर्ति-मनुष्योंके मल भाष्य माननेसे इनकार कराती हैं और स्वोपज्ञभाष्य मूत्रादिकमें भी उत्पन्न होते हैं और इसी तरह मानने वालोंकी ऐसी उक्तियों पर विश्वास नहीं अकर्मभूमक तथा अन्तरद्वीपज मनुष्योंक मल होने देतीं कि 'वाचकमुख्य उमास्वातिके लिए सूत्रका मूत्रादिकमें भी वे उत्पन्न होते हैं । उल्लंघन करके कथन करना असम्भव है ।' अस्तु। ____ * मणुस्सा दुविहा पएणत्ता, नं जहा-समुच्छिम अब प्रज्ञापनासूत्रको लीजिए, जिसमें कर्म भमिज मनुष्योंके ही आर्य और म्लेच्छ ऐसे दो मणस्सा य गम्भवतियमणस्सा य ।....गन्भवति. भंद किए हैं। इसमें भी आर्य तथा म्लेच्छका यमणुस्सा तिविहा परणत्ता, तं जहा-कम्ममूमगा, अकम्मभूमगा, अन्तरदीवगा । . ., .. जीवाभिगममें भी यही पाठ प्रायः ज्यों का -प्रशापना सूत्र ३६, जीवाभिगमे अपि त्यों पाया जाता है-'मिलिम्बू' की जगह मिलेच्छा' xदेखो, प्रशापना सूत्र नं०३६ का वह अंश जैसा पाठभेद दिया है। जो "गन्भवतियमणस्मा य" के बाद "से कि -"नापि वाचकमुख्याः मूगोल्लंघनेनाभिदधल्यसंभाव्य संमुच्छिम-मणस्सा!" से प्रारम्भ होता है। मानत्वात्।" -मिद्धमेनगगिटीका, १०२६७
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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