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________________ १८२ अनेकान्त [पौष, वीर-निर्वाण सं० २४६५ अतो विपरीता म्लिशः । तद्यथा। हिमवतश्वत- 'कार्य'; अल्प सावद्यकम तथा अनिन्दित आजी. सृषु विदिक्षु त्रीणियोजनशतानि लवणसमुद्रमत्रगाह्य विका करने वाले बुनकरों, कुम्हारों, नाइयों, दर्जियों चतसृणां मनुष्यविजातीनां चत्वारोऽन्तरद्वीपा भवन्ति और देवटों ( artisans = बढ़ई आदि दूसरे त्रियोजनशतविष्कम्भायामाः। तद्यथा । एकोरुकाणा- कारीगरों ) को 'शिल्पकर्मर्य'; और शिष्ट पुरुषों माभाषकाणां लालिकानां वैषाणिकानामिति । चत्त्वारि की भाषाओंके नियतवोंका, लोकरूढ स्पष्ट योजनशतान्यवगाह्य चतुर्योजनशतायामविकम्भा एवा- शब्दोंका तथा उक्त क्षेत्रादि पंच प्रकारके न्तरखीपाः। तद्यथा। हयकर्णानां गजकर्णानां गोक- आर्योंके संव्यवहारका भले प्रकार उच्चारण र्णानां शष्कुलीकर्णानामिति । पञ्चशतान्यवगाह्य पञ्च- भाषण करनेवालों को 'भाषार्य' बतलाया है। साथ योजनशतायामविष्कम्भा एवान्तरद्वीपाः । तद्यथा । ही क्षेत्रार्यका कुछ स्पष्टीकरण करते हुए उदाहरणगजमुखानां व्याघ्रमुखानामादर्शमुखानां गोमुखानामिति। रूपसे यह भी बतलाया है कि भरतक्षेत्रोंके साढ़ षड्योजनशतान्यवगाह्य तावदायामविष्कम्भा एवान्तः पच्चीस साढ़े पञ्चीस जनपदोंमें और शेष जनपदोंमें रद्वीपाः। तद्यथा । अश्वमुखाना हस्तिमुखानां सिंहमु- से उन जनपदोंमें जहाँ तक चक्रवर्तीकी विजय पहुँच खानां व्याघ्रमुखानामिति । सप्तयोजनशतान्यवगाह्य ती है, उत्पन्न होनेवालों को क्षेत्रार्य' समझना चाहिए। तावदायामविष्कम्भा एवान्तरद्वीपाः। तद्यथा । अश्व- और इससे यह कथन ऐरावत तथा विदेहक्षेत्रोंके कर्णसिंहकर्णहस्तिकर्णकर्णप्रावरणनामानः । अष्टौ योजन- साथ भी लागू होता है-१५ कर्मभूमियों में उनका शतान्यवगायाष्टयोजनशतायामविष्कम्भा एवान्तर- भी ग्रहण है, उनके भी २शा, २शा आर्यजनपदों दीपाः । तद्यथा। उल्कामुखविद्युजिव्हमेषमुखविद्यद्द- और शेष म्लेच्छक्षेत्रोंके उन जनपदों में उत्पन्न न्तनामानः ॥ नवयोजनशतान्यवगाह्म नवयोजनशता- होनेवालोंको क्षेत्रार्य' समझना चाहिए, जहाँ तक यामविष्कम्भा एवान्तरदीपा भवन्ति । तद्यथा। घन- चक्रवर्तीकी विजय पहुँचती है। दन्तगूढदन्तविशिष्टदन्तशुद्धदन्तनामानः॥एकोरुकाणा- इस तरह आर्योंका स्वरूप देकर, इससे विप मेकोरुकद्वीपः । एवं शेषाणामपि स्वनामभिस्तुल्यना- रीत लक्षण वाले सब मनुष्योंको 'म्लेच्छ' बतलाया मानो वेदितव्याः ॥ शिखरिणो ऽप्येवमेवेत्येवं पट- हैं और उदाहरणमें अन्तरद्वीपज मनुष्योंका कुछ पञ्चाशदिति ॥" विस्तारके साथ उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है इस भाष्यमें मनुष्योंके आर्य और म्लेच्छ ऐसे कि जो लोग उन दूरवर्ती कुछ बचे-खुचे प्रदेशोंमें दो भेद करके श्राोंके क्षेत्रादिकी दृष्टिसे छह भेद रहते हैं जहाँ चक्रवर्तीकी विजय नहीं पहुँच पाती किए हैं-अर्थात पंद्रहकर्म भूमियों ( ५ भरत, अथवा चक्रवर्तीकी सेना विजयके लिए नहीं ऐरावत और ५ विदेहक्षेत्रों ) में उत्पन्न होनेवालों जाती और जिनमें जात्यार्य, कुलार्य, कार्य, को क्षेत्रार्य': इक्ष्वाक, विदेह हरि, अम्बष्ट, मात, शिल्पार्य और भाषार्यके भी कोई लक्षण नहीं हैं कुरु, बुवुनाल, उग्र, भोग, राजन्य इत्यादि वंशवालों वे ही सब म्लेच्छ' हैं। को 'जात्यार्य'; कुलकर चक्रवर्ति-बलदेव-वासुदेवोंको भाष्यविनिर्दिष्ट इस लक्षणसे, यद्यपि, आज तथा तीसरे पाँचवे अथवा सातवें कुलकरसे प्रारम्भ कलकी जानी हुई पृथ्वीके सभी मनुष्य क्षेत्रादि किसी करके कुलकरोंसे उत्पन्न होनेवाले दूसरे भी विशुद्धा- न किसी दृष्टिसे 'आर्य' ही ठहरते हैं-शकन्वय-प्रकृतिवालोंको 'कुलार्य'; यजन, याजन, यवनादि भी म्लेच्छ नहीं रहते-परन्तु साथ ही अध्ययन, अध्यापन, प्रयोग, कृषि, लिपि, वाणिज्य भोगभूमिया-हैमवत आदि अकर्मभूमिक्षेत्रों में और योनियोषणसे आजीविका करने वालोंको उत्पन्न होने वाले-मनुष्य म्लेच्छ हो जाते हैं;
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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