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________________ २ ) भाषण श्री सेठ गोविन्ददासजी M.L.A. भाइयो और बहिनों! यद्यपि मैं जैन नहीं हूँ, फिर भी मेरी सदा आपने मुझे देहली-जीव-दया मण्डलीका महावीरके चरणों में भक्ति रही है। जिन्होंने दूसरों सभापति बनाकर मेरी तारीफ़में जो कुछ कहा है, की सेवा की है वे ही सबै सुखी हुए हैं और ये ही मैं उस काबिल नहीं हूँ। यद्यपि मुझे दुनियावी हर दुनियाँमें चिरस्मरणीय होते हैं । मैं सब धमाको तरहका सुख प्राप्त था TAXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXAANTARNXXX एक-सा मानता हूँ। और मैंने राजा गोकल * विचार भी सबके एक दासजीके भवनमें सब * से हैं सब धर्म यह कुछ प्राप्त भी किया, मानते हैं कि दूसरोंकी परन्तु मैं उस सुखको पीड़ाके समान दुनिया कुछ नहीं समझता में कोई पाप नहीं और जो कि अपने श्रा * उनकी भलाई के सिवाय त्माका कुछ भला न कोई पुण्यनहीं है । यह कर सके । सुख तो सारा विश्व ईश्वरका भाग्यसे ही मिलता है। • स्वरुपहै। विश्वमें और बहुतसे मनुष्य ऐशो जीवमें कोई भी भेद इशरतमें ही सुख सम नहीं है । महिसाका झते हैं और कुछ ऐसे सेठ गोविन्ददासजी एम. एल. ए. स्वरूप जितना भगवान् भी हैं जो कि अपने 'सेठ गोविन्ददासजी पोतड़ों के रईस है । देव-दुर्लभ * वीरने प्रज्वलित किया जीवनको उन्नत करने- लाड़ प्यारमें बड़े हुए हैं। धन वैभव और भोगविलास था उतना किसीने भी में ही सौख्य मानते हैं। * की मोहमायासे निर्लिप्त रहते हुए स्वदेश सेवामें संलग्न नहीं किया । उन्होंने दूसरोंको खुश करनेके हैं। स्वतन्त्रताका सुनेहरा प्रभात देखने के लिये आपके संसारमें अहिंसाका सि संसारम भी लिये वर्षों गुज़र जातेहैं. हृदयमें तड़प है। आप ही त्रिपुरी-काँग्रेसके स्वागता बान्त सबके दिलोंमें परन्तुस्वयंके आनन्दके *ध्यक्ष थे। वर्तमानमें केन्द्रीय असेम्बलीके सम्मानित कूट कूट कर भर दिया बिना कुछ भी नहीं हो सदस्य हैं। वीरजयन्ती-महोत्सव पर देहलोकी जीवदया था और प्रत्येक जीव सकता मुझे तो वह मण्डलीके अध्यक्ष-पदसे आपने यह भाषण दिया था। एक दूसरेसे प्रेम करना सुख जिसको मैं पसन्द ARMIXIXXXMAMMAXIMMMMMMELANXII सीख गया था। करता था जेलमें बन्दी रूपमें मिला है । वह सुख आपको यह ख्याल नहीं करना चाहिये कि मुझे राजा गोकलदासजीके भवनमें भी नहीं मिला। जैनी कम तादाद में हैं। धर्म कभी भी अनुयाइयों सुख निजी आत्मासे पैदा होता है और वह अच्छे पर नहीं तोला जा सकता । धर्म तो एक अमर भावोंके ऊपर ही अवलम्बित रहता है। चीज होती है, जिसके होनेसे अपना और परका *XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX MEREKEERTHIXXEXI
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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