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________________ ११४ अनेकान्त [वष २, किरण १ %3 काविको इससे बहुत गुम्सा आया। थोड़े समय तदा ते मुनयो धीरा, शुक्ल ध्यानेन संस्थिता।। बाद दूसरा शत्रुराजा युद्ध के लिए चढ़ा। इस समय हत्वाकर्माणि नि:शेष, प्राप्त: सिविं जगद् हिताम् ॥४२॥ राजाको कावि मन्त्रीकी याद आई । राजाने मंत्री (हिन्दी अनुवाद पृ० ४६-५३, मूलकथा पृ० ३१० ) को जेलसे बाहर निकाला और राज्यकी रक्षाके यद्यपि इस कथामें भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तका लिए कोई तरकीब निकालनको कहा। काविने नाममा का उल्लेख नहीं है । तबभी चाणक्यका चरित्र तो अपने अपने बुद्धिबलसे शत्रु राजाको तो वापिस लौटा को अच्छी तरह मिलता है। दिगम्बर प्रन्थकारों दिया, किन्तु प्रतिहिंसाकी भावनासे प्रेरित होकर ने मंत्रीश्वर चाणक्यको सामान्य श्रावक नहीं, चाणक्यको राज्य के विरुद्ध उकसाया। चाणक्यने सामान्य साधु नहीं, किन्तु महान आचार्य मानाहै। नन्द राजाको मार दिया और खुद राजा बन बैठा इतना ही नहीं किन्तु, इस कलिकालमें-पश्चम युग बहुत वर्षों तक राज्य चलाकर संसार छोड़कर में भी इनको अपने शिष्यों सहित मोक्षमें जाने दिगम्बर धर्मक महिधर आचार्यके पासमें दिगम्बर नकका उल्लेख किया है । लेकिन अपनको इसमस दीक्षा स्वीकार की । चाणक्य मुनि बड़े भारी इतना ही फलितार्थ निकालना है कि मंत्रीश्वर चाणक्य जैनधर्मी था। विद्वन और तेजस्वी थे। इमलिये थाड़े ही ममय ग उन्हें प्राचार्यपद मिल गया। चाणक्य मुनि अब जरा इतिहासकी तरफभी नजर डालिये। ५०० शिष्योंके साथम भूतल पर विचरने लगे। मंत्री चाणक्य सम्राट् विन्दुमारके समयमें भी विद्यमानथे और सम्राट बिन्दुसारने उनकी ही नन्दराजा का दूसरा मन्त्री सुबन्धु था। महायतासे राज्य विस्तृत कियाथा यह बात वर्तनन्दराजकी मृत्युके बाद सुबन्धु क्रौंचपुरके राजा मान समयकं इतिहासज्ञोंको भी मान्य है। देखिये, का मंत्री बना । चाणक्य मुनि विहार करते करते मौर्य साम्राज्य के इतिहासमं विद्वान् लेखक लिखते क्रौंचपुरमें आए। मंत्री सुबन्धुको चाणक्य मुनि हैं कि " १६ वीं शताब्दिके प्रसिद्ध तिब्बती लेखक के प्रति द्वष प्रकट हुआ। नन्द राजाका बदला तारानाथने लिखा है कि "बिन्दुमारने चाणक्यकी लेने के लिये मुनि संघके चारों तरफ घास डलवा सहायनाम मोलह राज्यों पर विज्य प्राप्तकी'। कर (?) उनकी जिन्दा जलवाने के लिए प्राग फिर भांग लिखा है कि " यह बात असंभव नहीं लगादी गई । चौतरफ आग जलने लगी मुनि संघ ध्यानमं रहा। चाणक्य मुनि भी शुक्ल ध्यान ___* कथा-कारका यह उल्लेव निरा भूलभरा जान पड़ता है। दूसरे किसी भी मान्य दिगम्पर ग्रन्थसे इसका समर्थन नहीं होता। ध्याते-ज्याते कर्मों की क्षय कर मोक्षमें पहुँचे (?) ऐसा मालूम होता है कि 'पडिवाणो उत्तम अटुं' जैसे वाक्यमें इस कथनके पिछले दो श्लोक इस प्रकार है- प्रयुक्त हुए. 'उत्तमार्थ' शब्दका भयं उसने मोक्ष समझ लिया है; जबकि पुराने अपराजितरि जैसे टीकाकार उसका अर्थ रजत्रय' पापी सुबन्धु नामा च मंत्री मिथ्यात्वदूषितः । देते है और प्रसंगसे भी वह बोधि-समाधिका सूचक जान समीपे तन्मुनीन्द्र कारीवाग्नि कुधीर्ददौ ॥४॥ पड़ता है। -सम्पादक।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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