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________________ वर्ष, किरण ] सेठ सुगनचन्द ४१६ . रुपया कर्ज नहीं दिया गया ।" लिखा हुआ था--"दीवानसाहबके हस्ते महाराज दीवान हैरान था कि मैं स्वयं इस मुनीमसे सादौराके पास एक लाख रुपया हस्तिनागपुरमें एक लाख रुपये ले गया हूँ और फिर भी यह अन- जैनमन्दिर बनवाने के वास्ते बतौर अमानत जमा भिज्ञता प्रकट करता है ! एक लाख रुपयेकी रकम कराया।" भी तो मामूली नहीं जो बहीमें नाम लिखनेसे रह . पढ़ा तो दीवान साहब अवाक रह गये! फिर. गई हो। इससे तो दो ही बातें जाहिर होती है-.. भी रुपया जमा करने के लिये काकी भापह किया या तो सेठ साहब के पास इतना रुपया है कि कुबेर किन्तु सेठ साह ने यह कहकररा रुपया जमा करानेभी हार मानें या इतना अन्धेर है कि कुछ दिनों में में अपनी असमर्थता प्रकट की कि--"जब मन्दिरसफाया होना चाहता है। के लिये रुपया लिखा हुआ है तो वह वापिस कैसे ___आखिर दीवान साहब तंग आकर बोले-“सेठ लिया जासकता है ? धर्मके लिये अर्पण किया साहब ! यह हमने माना कि आपने भाड़े बक्तमें हुआ द्रव्य तो छूना भी पाप है।" रुपया देकर हमारे काम साधे। मगर उसका यह लाचार दीवान साहब रुपया वापिस लेकर अर्थ तो नहीं कि आप अपना रुपया ही न लें। महाराजके पास पहुँचे और सारी परिस्थिति और उसपर भी कहा जारहा है कि रुपया कर्ज दिया समझाई और कहा कि जब अन्य उपायोंसे सेठ ही नहीं गया। अगर रुपया हम कर्ज न ले जाते साहब मन्दिर बनवानेमें असफल रहे तो उन्होंने तो हमारे पास आपकी तरह रुपया फालतू तो है यह नीति अख्तियार की । अन्तमें महाराज सादी नहीं,जो व्यर्थमें देने आते । मैं स्वयं इन्ही मुनीमजी- राने कृतज्ञता स्वरूप राँगड़ोंको राजी करके जैनसे.....ता० को रुपया उधार लेकर गया हूँ। मन्दिर बनवा दिया । मन्दिर निर्माण होनेपर सेठ आखिर .....!" साहबको बुलाया गया और हँसकर उनकी प्रमा सेठ साहब बातको जरा सम्हालते हुए बोले- नत उन्हें सौपदी। "मुनीमजी ! जरा अमुक तारीम्बकी रोकड़ बही फिर सेठ साहबकी इस दूरदर्शिताके कारण हस्तिध्यानसे देखो। आखिर एक लाख रुपयेका मामला नागपुरमें आज अमरस्मारक खड़ा हुआ श्रीशान्तिहै । दीवान साहब भी तो आखिर झूठ नहीं बोल नाथ आदि तीन चक्रवर्ती तीर्थंकरों और कौरवरहे होंगे।" पाण्डव आदिकी अमर कथा सुना रहा है। हजारों मुनीमजीने रोजनामचा उस तारीखका देखा नर-नारी जाकर वहाँकी पवित्र रज मस्तक पर लगा तो गर्म होगये। ताव में भरकर बोले-"लीजिये ते हैं। सेठ साहब चाहते तो हर इंट पर अपना आप ही देख लीजिये, उधार दिया हो तो, पता नाम खुदवा सकते थे, मगर खोज करने पर भी चले। मुझे व्यर्थ में इतनी देरसे परेशान कर कहीं नाम लिखा नहीं मिलता। केवल वहाँकी वाय रक्खा है।" ही उनको सुगन्ध कीर्ति फैलाती हुई भावक-हदयों..सेठ साहब और दीवान साहबने पढ़ा तो को प्रफुल्लित करती हुई नज़र आती है।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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