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अतीतके पृष्ठोंसे । जिलक- “मावर" जैन]
। [लेखक-"भगवत्" जैन]
[ एक ]
_ 'संसार ?-संसारकी बात कोई सिद्धान्त 'सेरा हृदय नहीं कहता कि तुम्हारी बातको ठुक- नहीं ! वह त्याज्य-बातोंको भी 'अच्छा' कह देता
"राऊँ—प्राणेश्वरी ! लेकिन मुश्किल तो यह है ! मेरा विश्वास है-वैवाहिक-जीवनका ध्येय है कि.........!
वासना तृप्ति नहीं, सन्तानोत्पत्ति है ! और सन्ता'क्या ?
नोत्पत्तिके लिए, एक पत्नीके सिवा दूसरी शादी 'तुम्ही एक बार सोचो-क्या तुम्हारा यह हठ, करना भी कोई क्षम्य अपराध नहीं ! जो अपराध यह प्रेरणा उचित है ? मुझसेकहीं अधिक तुम इस नहीं, वह अत्याचार नहीं हो सकता !' । पर विचार कर सकती हो, इसलिए कि तुम्हारी 'लेकिन मैं सोचता हूँ......!' अस्वाभाविक-प्रेरणाका सम्बन्ध तुम्हींसे अधिक 'तुम्हारा सोचना है वह मेरा प्रेम है, उपाय रहता है, वह तुम्हारी ही चीज़ है !'
नहीं, जीवनकी पूर्णता नहीं !' । 'ठीक कह रहे हो-नाथ ! मगर अपने ध्येय- 'किन्तु मुझे अपने जीवनमें प्रभाव भी तो से विमुख होकर स्वार्थ-साधनको ही सब-कुछ नहीं दीखता, जिसे पूर्णताका रूप देनेके लिए समझ बैठना भी तो नहीं बनता ! मेरी टिका सचेष्ट बनें ! प्रिये ! विवश न करो ! मैंने वैवाअभिशाप आपके लिए हो, यह मेरे लिए कितनी हिक-जीवनकी बांछनीय-पूर्णता तुममें पाली है। अवांछनीय बात है ! बस, वहीं मेरा कर्तव्य बन सन्तानके अभावकी स्मृतितक मेरे हृदयमें नहीं ! जाता है अपने प्राप्त अधिकारकी आहुति देकर और इसके बाद भी, मेरी धारणा है-कि. दाम्पभालपर लगे हुए कलंकको मिटाना, उजड़े-कानन त्तिक-जीवन प्राकृतिक-प्रेमका ही उपनाम है ! वही में बसन्तका आह्वान करना!'
प्राकृतिकता जिसको भग्न नहीं किया जा सकता ! __ 'मगर तब ! जब मैं उस अभिशापकी विभी- विकृति करना ही उसका विनाश कहलाता है !' षिकासे भीरु बनकर उसके प्रतिकारके लिए अव- एक छोटा-सा उदासी मिश्रित मौन !... लम्ब खोजने लगू !: "जरा गंभीरतासे विचारो- राजगृहीके धन-कुबेर सेठ ऋषभदास पत्नीके क्या इस प्रेरणाका क्रियात्मकरूप तुम्हारे प्रति उदास-मुस्तकी ओर देखकर मर्माहत हुए बगैर न मेरा अत्याचार न होगा ?-संसार क्या कहेगा- रह सके ! मन, वेदना सी महसूस करने लगा ! उसे?
विकट-परिस्थिति सामने थी, सोचने लगे-'क्या