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________________ ३८० . . . . . . . . . . . . अनेकान्त .......... [वैशाख, वीर-निर्वाण सं०२४६५ समन्तभद्रका स्मरण करते हुए, उन्हे "देवागमेन येनाऽत्र व्यको देवागमः कृतः" विशेषणके साथ उल्लेखित किया है। त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाऽक्षय्यसुखावहः । अर्थिने भव्यसार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः।। -पार्श्वनाथचरिते, वादिराजसूरिः वे ही योगीन्द्र समन्तभद्र सच्चे त्यागी (दाता) हुए हैं, जिन्होंने भव्यसमूहरूली सुखार्थीको अक्षय सुखका कारण धर्मरत्नोंका पिटारा-रत्नकरण्डक' नामका धर्मशास्त्र-दान किया है। प्रमाण-नय- निति-वस्तुतत्त्वमबाधितम् । जीयात्समन्तभद्रस्य स्तोत्रं युक्त्यनुशासनम् ।। -युक्त्यनुशासनटीकायां, विद्यानन्दः श्रीसमन्तभद्रका 'युक्त्यनुशासन' नामका स्तोत्र जयवन्त हो, जो प्रमाण और नयके द्वारा वस्तुतत्त्व के निर्णयको लिये हुए है और अबाधित है-जिसके निर्णयमें प्रतिवादी आदि द्वारा कोई बाधा नहीं दी जा सकती। यस्य च सद्गुणाधारा कृतिरेषा सुपद्मिनी । जिनशतकनामेति योगिनामपि दुष्करा ।। स्तुतिविद्या समाश्रित्य कस्य न क्रमते मतिः। तद्वृत्तिं येन जाड्ये तु कुरुते वसुनन्द्यपि ।। -जिनशतकटीकायां, नरसिंहभट्टः स्वामी समन्तभद्रकी 'जिनशतक' (स्तुतिविद्या) नामकी रचना, जो कि योगियोंके लिये भी दुष्कर है, सदगुणोंकी अाधारभत सुन्दर कमलिनी के समान हैं-उसके रचना-कौशल, रूप-सौन्दर्य, सौरभ-माधुर्य और भाववैचित्र्यको देखते तथा अनुभव करते ही बनता है। उस स्तुतिविद्याका भले प्रकार श्राश्रय पाकर किसकी बुद्धि को प्राप्त नहीं होती ? जडबुद्धि होते हुए भी वसुनन्दी स्तुतिविद्याके समाश्रयण के प्रतापसे उसकी वृत्ति (टीका) करने में समर्थ होता है। यो निःशेषजिनोक्तधर्मविषयः सामन्तभद्रैः कृतः सूक्तार्थेरमलैः स्तवोऽयमसमः स्वल्पैः प्रसनैः पदैः। स्थेयांश्चन्द्रदिवाकरावधि बुधप्रहादचेतस्यलम् ॥ -स्वयम्भूस्तवटीकायां, प्रभाचन्द्रः श्रीसमन्तभद्रका 'स्वयम्भस्तोत्र', जो कि सूत्ररूपमें अर्थका प्रतिपादन करनेवाले, निर्दोष, स्वल्प एवं प्रसन्न (प्रसादगुणविशिष्ट ) पदोंके द्वारा रचा गया है और सम्पूर्ण जिनोक्त धर्मको अपना विषय किये हुए है, एक अद्वितीय स्तोत्र है, वह बुधजनों के प्रसन्न नित्तमें सूर्य-चन्द्रमाको स्थिति-पर्यन्त स्थित रहे। तत्त्वार्थसूत्र व्याख्यान-गन्धहस्तिप्रवर्तकः । स्वामी समन्तभद्रोऽभद्देवागमनिदेशकः ।। स्थामी समन्तभद्र तत्त्वार्थसूत्रके 'गन्धहस्ति' नामक व्याख्यानके प्रवर्तक (विधायक ) हए हैं और साथ ही देवागमके-'देवागम' नामक ग्रन्थके अथवा जिनेन्द्रदेव प्रणीत श्रागमके-निर्देशक (प्ररूपक) भी थे। यहाँ पर 'श्रीगौतमायैः पद दिया हुआ है, जिसका कारण गौतम स्वामीके स्तोत्रको भी शुरूमें साथ लेकर दो तीन स्तोत्रोंकी एक साथ टीका करना है।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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