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अनकान्त [कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६५ ___ यदि इन समाधानांपर विचार किया जाय तो अधूरा अवश्य रहजाता है। क्योंकि तीर्थंकरोंके तीनों ही समाधान निःसार जान पड़ते हैं। प्रातिहार्य जिस प्रकार दिगम्बर सम्प्रदायने माने मानतंगाचर्य और कुमदचन्द्राचार्यका आपसमें यह हैं उसी प्रकारके श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी माने कोई समझौता नहीं था कि हम दोनों एक-सी ही गये हैं। इन आठ प्रातिहाल्का वर्णन जिस संख्याक स्तोत्र बनावें। हरएक कवि अपने अपने प्रकार कल्याणमंदिर-स्तोत्रमें है, जिसको कि स्तात्रकी पद्यसंख्या रखने में स्वतन्त्र है। दूसर श्वेताम्बर सम्प्रदायभी मानता है, उसी प्रकार मानतुंगाचार्य कुमुदचन्द्राचार्यसे बहुत पहले हुए हैं। भक्तामरस्तोत्रमें भी रक्खा गया है । श्वेताम्बर श्रतः पहली बातक अनुसार भक्तामरके श्लोकोंकी सम्प्रदायके भक्तामरस्तोत्रमें जिन ३२,३३, ३४, ३५ संख्या ४४ सिद्ध नहीं होती।।
नम्बरके चार श्लोकोंको नहीं रक्खा गया है उनमें दूसग समाधान भी उपहासजनक है। भिन्न कमसे दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, भामण्डल, और भिन्न दृष्टि से तीर्थंकरों की संख्या २४-४८-७२- दिव्यध्वनि इन चार प्रातिहार्योंका वर्णन है । २४०अादि अनेक बतलाई जासकती हैं । भरत- उक्त चार श्लोकोंको न मानने पर ये चारों क्षेत्रके २४ तीर्थंकर हैं तो उनके साथ समस्त प्रातिहार्य छूट जाते हैं। अत: कहना पड़ेगा कि विदेहांके बीस तीर्थकर ही क्यों मिलाये जाते हैं। श्वेताम्बरीय भक्तामरस्तोत्र में सिर्फ चार ही ऐरावततेत्रके २४ तीर्थंकर अथवा ढाई-द्वीपके प्रातिहार्य बतलाये हैं, जबकि श्वेताम्बरीय समस्त भरतक्षेत्रांक तीर्थंकरोंकी संख्या क्यों नहीं सिद्धान्तानुसार प्रातिहार्य आठ होते हैं, और लीजाती ?तीर्थंकरोंकी संख्याक अनुसार स्तोत्रोंकी उन छोड़े हुए चार प्रातिहार्यों को कल्याणमंदिरपद्य संख्याका हीन मानना नितान्त भोलापन है स्तोत्रमें क्रमशः २५, २०, २४ तथा २१ नम्बरके
और वह दूसरे स्तोत्रोंकी पद्यसंख्याको भी दूषित श्लोकोंमें गुम्फित किया गया है । . कर देगा। अतः दूसरी बात भी व्यर्थ है ।
अतः श्वेताम्बर सम्प्रदायके सामने दो अब रही तीसरी बात, उसमें भी कुछ सार समस्याएँ हैं। एक तो यह कि, यदि कल्याणमंदिर प्रतीत नहीं होता; क्योंकि भक्तामरस्तोत्रका प्रत्येक को वह पूर्णतया अपनाता है तो कल्याणमंदिर श्लोक जब मंत्र-शक्तिसं पूर्ण है और प्रत्येक श्लोक की तरह तथा अपने-सिद्धान्तानुसार भक्तामरस्तोत्रमें मंत्ररूपसे कार्यमें लिया जासकता है। तब देवों भी आठों प्रातिहार्योंका वर्णन माने, तब उसे का संकट हटाने के लिये मानतुंगाचार्य सिर्फ चार भक्तामरस्तोत्रके ४८ श्लोक मानने होंगे। श्लोकोंको ही क्यों हटाते ? सबको क्यों नहीं ? दूसरी यह कि, यदि भक्तामरस्तोत्रमें अपनी
सचमुच ही भक्तामरस्तोत्रक मंत्रा- मान्यतानुसार चार प्रातिहार्य ही मानता है तो राधनसे देव तंग होते थे और मानतुंगाचार्यको कल्याणमंदिरसे भी २०, २६, २४ तथा २५ उन पर दया करना इष्ट था तो उन्होंने शेष ४४ नम्बरके श्लोकोंको निकाल कर दोनों स्तोत्रोंको श्लोकोंका देवोंकी श्राफ़त लेनेके लिये क्यों छोड़ समान बना देवें। दिया ? इसका कोई भी समुचित उत्तर नहीं इन दोनों समस्याओंमें से पहली समस्या ही हो सकता।
श्वेताम्बर समाजको अपनानी होगी; क्योंकि अतः इन समाधानोंसे तो भक्तामरस्तोत्रके वैसा करने पर ही भक्तामरस्तोत्रका पूर्णरूप श्लोकोंकी संख्या ४४ सिद्ध नहीं होती। उनके पास रहेगा। और उस दशामें दिगम्बर
हाँ इतना जरूर है कि भक्तामर स्तोत्रको श्वेताम्बर-सम्प्रदायके भक्तामरस्तोत्रमें कुछभी ४४ श्लोकों वाला मान लेने पर भक्तामरस्तोत्र अन्तर नहीं रहेगा।