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________________ २३० अनेकान्त [माघ, वीर-निर्वाण सं० २४६५ व्यर्थ ही संक्लेशित और पाकुलित करनेकी क्या भवोंमें – करोड़ों जन्म लेकर-क्षय करता है उस अथवा ज़रूरत है ? ऐमा करनेसे तो उल्टा फल-प्रापिके उतने कर्मसमूहको ज्ञानी-विवेकी मनुष्य मन-वचनमार्ग में कांटे बोये जाते हैं । क्योंकि इच्छा फल-प्राप्तिका कायकी क्रियाका निरोधकर अथवा उसे स्वाधीनकर माधन न होकर उस में बाधक है। स्वरूप में लीन हुअा उच्छवासमात्रमें-लीलामात्रमेंइसमें सन्देह नहीं कि धर्म-साधनमे सब सुम्ब नाश कर डालता हे । प्राप्त होते हैं; परन्तु तभी तो जब धर्म-माधनमें विवेकसे इससे अधिक विवेकका माहात्म्य और क्या हो काम लिया जाय । अन्यथा, क्रिया के-बाह्य धर्मा- मकता है ? यह विवेक ही चारित्र को 'सम्यक्चारित्र' चरण के.-समान होनेपर भी एकको बन्धफल दूमरको बनाता है और मंमार परिभमण एवं उसके दुःख-कष्टोंमें मोक्षफल अथवा एक को पुण्यफल और दूसरेको पापफल मुक्ति दिलाता है । विवेक के बिना चारित्र मिथ्याक्यों मिलता है ? देग्विये, कर्मफलकी इस विचित्रताक चारित्र हैं, कोरा कायक्लेश है और वह संसारविषय में श्रीशुभचन्द्राचार्य ज्ञानार्गव में क्या लिखते हैं --- परिभ्रमण तथा दुःखपरम्पराका ही कारण है। इसीसे यत्र बालश्चरत्यस्मि-पथि तत्रैव पण्डितः । विवेकपूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञानके अनन्तर चारित्रका बाल स्वमपि बध्नाति मुच्यते तत्त्वविद्ध्वम् ।।७.२१॥ अाराधन बनलाया गया है; जैसा कि श्री अमृनचन्द्राचार्य__ अर्थात्-जिस मार्ग पर अज्ञानी चलता है उसीपर के निम्न वाक्यमे प्रगट है .... ज्ञानी चलता है । दोनोंका धर्माचरण ममान होनेपर भी न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । अज्ञानी अपने अविवेक के कारण कर्म बांधता है और ज्ञानानन्तरमुक्तं चारित्राराधनं तरमात् ॥ २८ ॥ ज्ञानी अपने विवेक-द्वारा कर्म बन्धनसे छूट जाता है। --पुरुषार्थसिद्धयुपाय ज्ञानार्णव के निम्न श्लोक में भी इसी बातको पुष्ट किया अर्थात्-अज्ञानपूर्वक---विवेकको साथमें न लेकर दूसरोंकी देखा-देखी अथवा कहने मुनने मात्रसे-जो वेष्टयत्यात्मनात्मानमज्ञानी कर्मबन्धनै । चरित्रका अनुष्ठान किया जाता है वह 'सम्यक् चारित्र' विज्ञानी मोचयत्येव प्रबुद्धः समयान्तरं ।। ७७॥ नाम नहीं पाता उसे 'सम्यक् चारित्र' नहीं कहते । इसमे विवेकपूर्वक आचरणका कितना बड़ा माहात्म्य इमीमे ( आगममें ) सम्यग्ज्ञान के अनन्तर-विवेक होहै उसे बतलानेकी अधिक ज़रूरत नहीं रहती । श्रीकुन्द जाने पर चारित्रक पागधन का---- अनुष्ठानकाकुन्दाचार्यने, अपने प्रवचनसार के चारित्राधिकार में, इसी निर्देश किया गया है-रत्नत्रय धर्मकी आराधनामें, जो विवेकका-सभ्यग्ज्ञानका-माहात्म्य वर्णन करते हुए बहुत मुक्तिका मार्ग है, चारित्रकी आराधनाका इसी क्रमसे स्पष्ट शब्दोंमें लिखा है..... विधान किया गया है। जं अराणाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यन, प्रवचनसार में, 'चारित्तंतं गाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥ ३८॥ बलुधम्मो' इत्यादि वाक्य के द्वारा जिस चारित्रको___ अर्थात्--अज्ञानी अविवेकी मनुष्य जिस अथवा स्वरूपाचरणका - वस्तुस्वभाव होने के कारण धर्म जितने ज्ञानावरणादिरूप कर्मसमूहको शत-सहस कोटि बतलाया है वह भी यही विवेकपूर्वक सम्यकुचारित्र गया है
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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