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________________ अनेकान्त [फाल्गुण,वीर-निर्वाण सं०२४६५ श्रई करनेसे बड़ा अनर्थ हो जायगा और उस अनर्थको दो फार्मके करीबका होगया है, उसे ज्योंका त्यों पूरा छाप सूचित करने के लिये तीन लम्बे लम्बे उदाहरण घड़कर कर यदि तुर्की-बतुर्की जवाब दिया जावे तो समूचे लेख पेश किये थे, जिनस उनके लेखमें व्यर्थका विस्तार का कलेवर चार फार्मस ऊपरका हो जावे और पढ़नेहोगया था। ऐसी हालत में उनका लेख अनेकान्तमें वालोंको उसपरसे बहुत ही कम बात हाथ लगे। मैं दि जानके योग्य अथवा कुछ विशेष उपयोगी न होते नहीं चाहता कि इस तरह अपने पाटकोंका समय व्यर्थ हुए भी महज़ इस ग़र्ज़से देदिया गया था कि न देनेसे नष्ट किया जाय । शास्त्रीजीके पिछले लेखको पढ़कर कुछ कहीं यह न समझ लिया जाय कि विरोधी लेखोंको स्थान विचारशील विद्वानोंने मुझे इस प्रकारसे लिखा भी है नहीं दिया जाता । माथ ही उसकी निःसारता आदिको कि-"परिमित स्थानवाले पत्र में ऐसे लम्बे लम्बे लेखा व्यक्त करते हए कुछ सम्पादकीय नोट भी लेख पर का प्रकाशन जिनमें प्रतिपाद्य वस्तु अधिक कुछ न हो लगा दिये गये थे । मेरे उन नोटीको पढ़कर शास्त्रीजी- बांछनीय नहीं है। शास्त्रीय प्रमाणीको 'ऐसी' और को कुछ क्षोभ हो पाया है और उमी क्षोभकी हालतमें इसमें' के शाब्दिक जंजाल में नहीं लपेटना चाहिए । उन्होंने एक लम्बामा लेख लिखकर मर पाम भेजा है। व प्रमाण तो स्पष्ट है जैसा कि ग्रापने अपने नोट में लिखा लेखमें पद-पद पर लेखकका क्षोभ मूर्तिमान नज़र आता है । म्लेच्छोमें संयमकी पात्रतासे इनकार तो नहीं किया है और उसमें मेरे लिये कुछ कटुक शब्दोंका प्रयोग भी जा सकता।” साथ ही, मुझे यह भी पसंद नहीं है कि किया गया है, जिन्हें यहाँ उद्धृत करके पाटकोंके कंटुक शब्दोंकी पनरावृत्ति द्वारा उनकी परिपाटीको हृदयाको कलंपित करनेकी मैं कोई ज़रूरत नहीं आगे बढ़ाकर अप्रिय चर्चाको अवसर दिया जाय । समझता । क्षोभके कारण मेरे नोटों पर कोई गहरा हमारा काम प्रेमके माथ खुले दिलसे वस्तुतत्त्व के विचार भी नहीं किया जा सका और न उसे करना निर्णयका होना चाहिये—मूल बातको ऐसी' और जरूरी ही समझा गया है-क्षोभ में ठीक इसमें' के प्रयोग-जैसी लफती (शाब्दिक) बहसमें डाल विचार बनता भी नहीं-यों ही अपना क्षोभ व्यक्त कर किसीको भी शब्द छलसे काम न लेना चाहिये। करनेको अथवा महज़ उत्तर के लिये ही उत्तर लिखा उधर शास्रीजी कुछ हेर-फेरके साथ बाब सूरजभानजीके गया है । इमीस यह उत्तर-लेख भी विचारकी कोई नई विषयमें कहे गये अपने उन शब्दोंको वापिस भी ले सामग्री कोई नया प्रमाण-कामने रखता हुअा रहे हैं जिनकी सूचना इस लेखके शुरूमें की गई है। नज़र नहीं आना । उन्हीं बातोंको प्राय; उन्हीं शब्दोंमें साथ ही मेरे लिये जिन कटुक शब्दोंका प्रयोग फिर फिरसे दोहरा कर-अपने लेखके, वकील साहबके किया गया है उस पर लेखके अन्तमें अपना खेद भी लेखक तथा मर नोटोंके वाक्योंको जगह-जगह और पुनः व्यक्त कर रहे हैं-लिख रहे हैं कि “नोटोंका उत्तर पुनः उधृत करके अपनी बातको पुष्ट करनेका देते हुए मेरी लेखनी भी कहीं कहीं तीव्र होंगई है और निष्फल प्रयत्न किया गया है। इसका मुझे खेद है !” ऐसी हालतमें शास्त्रीजीका । इस तरह प्रस्तुत उत्तरलेखको फ़िज़लका विस्तार पूरा लेख छापकर और उसकी पूरी अालोचना करके दिया गया है और वह १४ बड़े पृष्ठों का अर्थात् पाने पाठकोंके समय तथा शक्तिको दुरुपयोग करना और .
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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