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महात्मा गान्धीके २७ प्रश्नोंका श्रीमद् रायचन्दजी द्वारा समाधान
[नवी किरण से भागे
५. प्रश्न:-ऐसा पढ़नेमें आया है कि मनुष्य आदिमें जन्म लेता है, परन्तु वह सर्वथा पृथ्वीप देह छोड़ने के बाद कर्मके अनुसार जानवरोंमें जन्म अथवा पत्थर रूप नहीं हो जाता; जानवर होते लेता है; वह पत्थर और वृक्ष भी हो सकता है, क्या समय सर्वथा जानवर भी नहीं हो जाता । जो देह यह ठीक है?
है वह जीवका वेषधारी पना है, स्वरूपपना नहीं। उत्तरः-देह छोड़नेके बाद उपार्जित कर्मके ६-७ प्रश्नोत्तरः-इसमें बटे प्रश्नका भी समाअनुसारही जीवकी गति होती है, इससे वह तिर्यच धान मा गया है। ..... (जानवर ) भी होता है और पृथ्वीकाय अर्थात इसमें सातवें प्रश्नका भी समाधान भागया पृथ्वीरूप शरीर भी धारण करता है और बाकीकी है, कि केवल पत्थर अथवा पृथ्वी किसी कर्मका दूसरी चार इन्द्रियोंके बिना भी जीवको कर्मके कर्ता नहीं है। उनमें पाकर उत्पन्न हुमा जीव ही भोगनेका प्रसंग आता है, परन्तु वह मर्वथा पत्थर कर्मका, कर्ता है, और वह भी दूध और पानीकी अथवा पृथ्वी ही हो जाता है, यह बात नहीं है। तरह है। जैसे दूध और पानीका मंयोग होने पर वह पत्थररूप काया धारण करता है और उसमें भी दूध दुध है और पानी पानी ही है, उमो नरह भी अव्यक्त भावसे जीव, जीवरूपसे ही रहता है। एकेन्द्रिय श्रादि कर्मबन्धसे जीवका पत्थरपनावहाँ दूसरी चार इन्द्रियोंका अव्यक्त (अप्रगट)पना जड़पना-मालूम होता है,तो.भी बह जीव अंतरमें होनेसे वह पृथ्वीकायरूप जीव कहे जाने योग्य है । तो जीवरूप ही है, और वहाँ भी वह माहार भय क्रम क्रमसे हो उस कर्मको भोग कर जीव निवृत्त आदि मंशापूर्वक ही रहता है, जो अठयक्त जैमी होता है। उस समय केवल पत्थरका दल परमाणु है। . . रूपसे रहता है, परन्तु उसमें जीवका सम्बन्ध चला . प्रश्न:-आर्य-धर्म क्या है ? क्या माकी आता है, इसलिये उसे आहार आदि संज्ञा नहीं उत्पति वेदसे ही हुई है ? होती। अर्थात् जीव सर्वथा जड़-पत्थर-हो उत्तरः-(१) आर्यधर्मकी व्याख्या करते हुम. जाता है, यह बात नहीं है । कर्मकी विषमतासे चार सबके सब अपने पक्षको ही आर्यधर्म कहना चाहते इन्द्रियोंका भव्यक समागम होकर केवल एक स्प- हैं। जैन जैनधर्मको, बौद्ध बौद्धधर्मको, बेदान्वी र्शन इन्द्रिय रूपसे जीनको जिस कर्मसे देहका वेदान्त धर्मको पार्यधर्म को, यह साधारण पात समागम होता है,उस कर्मके भोगते हुए वह पृथिवी है। फिर भी ज्ञानी पुरुष तो जिममे अात्माको निज