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________________ ४१२ [वैशाख, वीर निर्वाण सं०२४६५ सकता है। कोई पैदा होता है तो अपने कर्मोसे, मरता अपने पास तक भी न आने देनेकी और परी कोशियके है तो अपने कर्मोसे, दूसरोंके शुभकर्म न किसीको स्वीच साथ उत्तम उत्तम निमित्तोंको मिलाते रहने की बहुत ही लाकर उसके यहाँ पैदा करा सकते हैं और न दूसरोंके ज्यादा जरूरत है । खोटे निमित्त जीवके उतने ही वैरी अशुभ कर्म किसीको मारकर उससे वियोग ही करा नहीं जितने कि खोटे कर्म; बल्कि उनसे भी अधिक शत्रु सकते हैं। संयोग-वियोग तो सरायके मुसाफिरोंके मेलके हैं क्योंकि ये खोटे निमित्त ही तो सोती. कषायोंको जगा समान एक ही संसारमें रहने के कारण आपसे आप ही कर जीवसे महा खोटे कर्म कराते हैं और उसका सत्याहोता रहता है और यह ही संयोग वियोग अच्छा बुरा नाश कर डालते हैं। इस ही कारण शास्त्रोंमें महामुनियों निमित्त बन जाता है । अच्छे अच्छे निमित्तोंके मिलनेसे तकको भी खोटे निमित्तोंसे बचते रहनेको भारी ताकीद जीवका उद्धार हो जाता है, जैसे कि सद्गुरुओंके उप- की गई है, जिसके कुछ नमूने इस प्रकार है:देशसे व सत्शास्त्रोंके पढ़नेसे जीवका अनादि कालीन भगवती माराधनासारके नमूनेमिथ्यात्व छूटकर सम्यक् भदानकी प्राप्ति हो जाती है गाथा १०६४-एकान्तमें माता, पुत्री, वहनको वीतराग भगवान्की वीतराग मुद्राको देखकर वीतराग देखकर भी काम भड़क उठता है । गाथा १२०६-जैसे भगवान्के गुणोंको याद करनेसे, गुणगानरूप स्तुति कोई समुद्र में घुसे और भीगे नहीं तो बड़ा आश्चर्य है,ऐसे करनेसे और वीतरागताका उपदेश सुननेसे सम्यक- ही यदि कोई विषयोंके स्थानमें रहे और लित न हो तो चारित्र धारण करनेका उत्साह पैदा होता है, जिससे आश्चर्य ही है। सत्पथ पर लग कर जीव अपना कल्याण कर लेता है- “ गाथा ३३५--हे मुनि अनि समान और विषसमान सदाके लिये दुखोसे छूट जाता है । खोटे निमित्तोंके जो आर्यिकाओंका संग है उसको त्याग । मिलनेसे जीव विषय-कषायोंमें फँसकर अपना सत्यानाश . गाथा ३३८-यदि अपनी बुद्धि स्थिर भी हो,तो भी कर लेता है, कर्मोकी कही जंजीरोंमें बन्धकर नरक और आर्यिकाकी संगतिसे इसप्रकार चित्त पिघल जाता है तिर्यवगतिके दुख उठाता है। जैसे अमिसे घी। अनादिकालसे ही विषय-कषायोंमें फँसा हुमा यह गाथा १०८६-जैसे किसीको शराब पीता देखकर जीव विषय-कषयोंका अभ्यासी हो रहा है, इस ही कारण वा शराबकी बातें सुनकर शराबीको शराब पीनेकी भड़क विषय-कषायोको भड़काने पाले निमित्तोका असर उस उत्पन्न हो जाती है, उसही प्रकार मोही पुरुष विषयोंको पर बहुत जल्द होता है, विषय-कषायकी बातोंके ग्रहण देखकर वा उनकी बात सुनकर विषयोंकी अभिलाषा करने के लिये वह हर वक्त तैय्यार रहता है । इसके करने लग जाता है। विपरीत विषय-कषायोंको रोकने, दबाने, काबमें रखने मूलाचारके नमूने अथवा सर्वथा छोड़ देनेकी बात उसको बिल्कुल ही गाथा ९५४-संगतिसे ही सम्यक्त्व प्रादिकी शुद्धि अनोली मालम होती और इसीसे यह बहुत ही कठि- बढ़ती है और संगतिसे ही नष्ट होती है, जैसे कि कमलमताके साथ हृदयमें बैठती है। ऐसी हालतमें बड़ी मारी की संगतिसे पानी सुगंधित हो जाता है, और अनिकी सावधानीके साथ लोटे निमित्तोंसे बचते रानकी. उनको संगतिसे गरम ।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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