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________________ ३५० अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६५ पये हो या हो जाएँ; किन्तु यह असम्भव है कि प्रत्येक के नाना स्वमाव और विचित्र दृष्टिकोणोंके होनेसे मतप्राणीके विचार किसी भी समय एकसे ही हो जाएँ। भेद होना स्वाभाविक है। अपने दृष्टिकोणको पवित्र सब देश जातियों तथा एक नगरके निवासियोंके वि- बनाश्रो और प्रत्येक बात पर या वस्तुके स्वभाव पर हर चारोंकी एकता तो दूर, एक ही बापके दो बेटोंके भी सब पहलूसे हठको छोड़कर विचार करो। हो सकता है कि विचार एकसे नहीं होते । ऐसी अवस्थामें क्या केवल कोई जान बूझकर ग़ल्ती कर रहा हो या उसने बातको मतभेद होने मात्रसे ही मनुष्योंको कुत्तोंकी तरह लड़ लड़ ग़लत समझा हो, तो भी उससे वेप न कर यदि तुमसे जीवन बर्बाद करते रहना चाहिए और बन सके और तुम उसे समझानेका पात्र समझो तो बलवानोंको निर्बलों पर अत्याचार करते रहना चाहिए ? उसे वास्तविकता समझा दो, वरना मध्यस्थ ही रहो यह एक प्रश्न है, जिस पर समय रहते प्रत्येक समझदार और उसकी मूर्खता पर झुंझलाश्रो नहीं, किंतु दया व्यक्तिको तो विचार करना ही चाहिए; किंतु उन जाहिलों- करो । साथही, प्रत्येक प्राणीकी दिलसे भलाई चाहते को भी, जो कि उक्त दुष्कृत्य करने कराने पर तुले हुए रहो और किसीका स्वप्नमें भी बुरा न विचारो। और है और दुनिया में अशांतिकी आग धधकाकर खुद भी यदि तुम्हें कोई दीन दुखी दिखाई दे तो दयार्द्र होकर उसीमें जल रहे हैं, शीघ्र ही ठंडे दिलसे विचार करना फौरन उसकी मदद करो। यदि किसी गुणी पुरुषके चाहिए । अन्यथा, वह दिन दूर नहीं है जब कि अस- दर्शन हों तो उसका प्रेम पूर्वक श्रादर करो और यदि हिष्णुताकी इस धधकती हुई श्रागमें दूसरांके साथ वे कारणवश या अकारण ही कोई तुमसे द्वेष करे तो खुद भी देखते देखते भस्म हो जाएँगे। तुम उस पर उपेक्षा कर जाश्रो। यदि ऐसा करोगे तो - इस समस्या पर हमें कोई नये सिरेसे विचार करने- शीघ्र ही देखोगे कि दुनिया सुख और शांतिकी गोदमें की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि प्राचीन कालमें भी खेल रही है।" हीनाधिकरूपसे हमारे पूर्वजोंके सामने कभी जात्यन्धताके ये हैं विश्वकी दिव्य विभूति भगवान् महावीरके रूममें तो कभी धर्मान्धताके रूपमें यह असहिष्णुता पवित्र विचार, जो उन्होंने संसारके प्राणी मात्रको सुखी अनेक रूपसे प्रगट होती रही है। इसका हल भी उन्होंने बनाने एवं विभिन्न विचारोंके कारण फैली हुई अशांतिर केवल उस समयके लिए किया बल्कि सदा-सर्वदाके को दूर करनेके लिये व्यक्त किये थे, जिस पर अमल लिए करके रख दिया । दुनियाँ चाहे तो उस हलके करने से मानव-समाज ही नहीं बल्कि उस समयका निम्न सूत्र पर अमलकर अपने जीवनको और दूसरोंके पशु-समाजभी अानन्द-विभोर हो गया था। क्या आज जीवनको भी पूर्णरूपसे सुखी तथा शांतिपूर्ण बना का मदोन्मत्त, स्वार्थाध और असहिष्णु संसार ठण्डे सकती है: दिलसे उपरोक्त पवित्र विचारों पर विचार करेगा ? यदि ., "भाइयो ! यदि तुम सचमुच ही शांति और सुखके वह सुख और शांतिको दिलसे चाहता है तो हमारा इच्छुक हो, तो दुनियाके प्रत्येक प्राणीको अपना मित्र यह पूर्ण विश्वास है कि एक दिन उसे उक्त पवित्र समझो, गोद होने मात्रसे ही किसीको अपना शत्रु बास्मों पर विचार करना ही पड़ेगा । समझकर उसंस दंप मत करो; क्योंकि विभिन्न प्राणियों -
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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