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अनेकान्त [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ में, जोकि सर्वनन्दी के प्राकृत 'लोकविभाग' का बारसअंगवियाणं चौदसपुव्यंगविपुल वत्थरणं । ही प्रायः अनुवादितरूप है, तिर्यचोंके उन चौदह सुयणाणिभद्दबाहू गमयगुरूभयव ओजयऊ। भेदों के विस्तार-कथनका कोई पता भी नहीं है,
___इस परसे यह कहा जासकता है कि पहली जिसका उल्लेख नियमसार की उक्त गाथा में किया
गाथा (नं० ६१) में जिन भद्रबाहु का उल्लेख है गया है। और इससे उक्त कथन अथवा स्पष्टीकरण किया
वे द्वितीय भद्रबाहु न होकर भद्रबाहु-श्रुतकेवली ही और भी ज्यादा पुष्ट हो जाता है।
हैं और कुन्दकुन्दने अपनेको उनका जो शिष्य (५) कुन्दकुन्द-कृत 'बोधपाहुड' के अन्त में एक
__ बतलाया है वह परम्परा शिष्यके रूप में उल्लेख है।
. गाथा (६१) निम्न प्रकार से पाई जाती है :- परन्तु ऐसा नहीं है। पहली गाथा में वर्णित भद्रसद्दवियारो हो भासासुत्तेसु जंजिणे कहियं । बाहु श्रुतकेवली मालूम नहीं होते; क्योंकि श्रुतसो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुम्स ॥ केवली भद्रबाहुके समयमें जिन कथित श्रुतमें ऐसा
- कोई खास विकार उपस्थित नहीं हुआ था, जिसे ___ इसमें बतलाया है कि जिनेन्द्रने-भगवान् ।
__उक्त गाथा में “सद्दवियारो हूओ भासासुत्तेसु महावीरने-अर्थरूपसे जो कथन किया है वह
जं जिणे कहियं” इन शब्दों द्वारा सूचित किया भाषासूत्रों में शब्दविकार को प्राप्त हुआ है-अनेक
गया है-वह अविच्छिन्न चला आया था । परन्तु प्रकार के शब्दों में गंथा गया है.-भद्रबाहु के मुझ
दूसरे भद्रबाहु के समयमें वह स्थिति नहीं रही थीशिष्यने उन भाषासूत्रों परसे उसको उसी रूपमें
कितना ही श्रुतज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवजाना है और (जानकर इस ग्रंथ में) कथन किया है।
शिष्ट था वह अनेक भाषासूत्रों में परिवर्तित होगया __इससे बोधपाहुड के कर्ता कुन्दकुन्दाचार्य भद्र
था। इससे ६१ वीं गाथाके भद्रबाहु भद्रबाहुद्वितीय बाहु के शिष्य मालूम होते हैं । और ये भद्रबाहु
हु ही जान पड़ते हैं। ६२ वीं गाथा में उसी नाम से श्रुतकेवलीसे भिन्न द्वितीय भद्रबाहु जानपड़ते हैं,
प्रसिद्ध होने वाले प्रथम भद्रबाहुका अन्त्यमंगलके जिन्हें प्राचीन ग्रंथकारों ने 'आचारांग' नामक प्रथम राजयघोष किया गया है और उन्हें साफ तौर अंगके धारियों में ततीय विद्वान् सूचित किया है, से गमकगुरु' लिखा है । इस तरह दोनों गाथाओंऔर जिनका समय जैनकालगणनाओं * के अनु- में दो अलग अलग भद्रबाहुओं का उल्लेख होना सार वीर निर्वाण संवत् ६१२ अर्थात् विक्रम संवत् अधिक युक्तियुक्त और बुद्धिगम्य जान पड़ता १४२ से पहले भले ही हो परन्तु पीछे का मालूम है। अस्तु । नहीं होता। और इसलिये कुन्दकुन्दका समय ऊपरके इस समग्र अनुसंधान एवं स्पष्टीविक्रम की दूसरी और तीसरी शताब्दी तो हो करणसे, मैं समझता हूँ, विद्वानोंको इस विषयमें सकता है परन्तु तीसरी शताब्दीसे बादका वह कोई सन्देह नहीं रहेगा कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य यतिकिसी तरह भी नहीं बनता।
वृषभसे पूर्ववर्ती ही नहीं, किन्तु कई शताब्दी यहाँपर इतना और भी प्रकट करदेना उचित पहलेके विद्वान हैं। जिन्हें कुछ आपत्ति हो वे मालूम होता है कि 'बोधपाहुड' की उक्त गाथाके सप्रमाण लिखनेकी कृपा करें, जिससे यह विषय अनन्तर निम्न गाथा नं० (६२) और दी है, जिसमें और भी अधिक स्पष्ट हो जाय । श्रुतकेवली भद्रबाहु का जयघोष किया गया है:- वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० ३-८-१९३८
जैनकालगणनाओंका विशेष जाननेके लिये देखो, 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) का 'समय-निर्णय' प्रकरण तथा भगवान् महावीर और उनका समय' नामक पुस्तक पृष्ठ ३१ से |