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वर्ष २ किरण ४]
सकाम धर्मसाधन
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निदान-जनित मार्तध्यान लिखा है और उसे घोर होता है, और इसलिए हमें इस विषयमें बहुत हो दुःखोंका कारण बतलाया है । यथा-
सावधानी रखने की ज़रूरत है। हमारा सम्यक्त्व भी पुण्यानुष्ठानजातैरभिलषति पदं यजिनेन्दामराणो, इससे मलिन और खण्डित होता है । सम्यक्त्वके पाठ यद्वा तैरेव वाचत्यहितकुल कुजच्छेदमत्य तकोपात्। अंगोंमें निःकांक्षित नामका भी एक अंग है, जिसका पूजा-सत्कार-लाभ-प्रभृतिकमथवा याचते यद्विकल्पैः वर्णन करते हुए श्रीमतगति प्राचार्य अपने उपासकास्यादात तनिदानप्रभवमिहनृणां दुःखदावोगधाम ॥ चार के तीसरे परिच्छेदमें साफ लिखते हैं___ अर्थात्-अनेक प्रकारके पुण्यानुष्ठानोंको-धर्म विधीयमानाःशम-शील-संयमाः कृत्योंको-करके जो मनुष्य तीर्थकरपद तथा दूसरे श्रियं ममेमे वितरन्तु चिन्तिताम् । देवोंके किसी पदकी इच्छा करता है अथवा कुपित हुआ सांसारिकानेकसुखप्रवर्धिनी उन्हीं पुण्याचरणों के द्वारा शत्रकुल-रूपी वृक्षोंके निष्कांक्षितो नेति करोति कांक्षाम्॥७४ ॥ उच्छेदकी वांछा करता है, और या अनेक विकल्पोंके अर्थात्-निःकाक्षित अंगका धारक सम्यग्दृष्टि इस साथ उन धर्म-कृत्योंको करके अपनी लौकिक पूजा- प्रकारकी वांछा नहीं करता है कि मैंने जो शम शील प्रतिष्ठा तथा लाभादिकी याचना करता है, उसकी और संयमका अनुष्ठान किया है वह सब धर्माचरण यह सब सकाम प्रवृत्ति निदानज' नामका, पात ध्यान मुझं उस मनोवांच्छित लक्ष्मी को प्रदान करे जो नाना है। ऐसा प्रार्तध्यान मनुष्योंके लिये दुःख-दावानल- प्रकारके सांसारिक सुखोंमें वृद्धि करनेके लिए समर्थ का अग्रस्थान होता है-उससे महादुःखोकी परम्परा होती है-ऐसी वांछा करनेसे उसका सम्यत्क्व दूषित चलती है।
होता है। वास्तवमें प्रार्तध्यानका जन्म हो संक्लेश इसी निःकांक्षित सम्यग्दृष्टिका स्वरूप श्रीकुन्दकुन्दापरिणामोंसे होता है, जो पाप बन्धके कारण हैं। चार्य ने 'समयसार' में इस प्रकार दिया हैज्ञानार्णवके उक्त प्रकरणान्तर्गत निम्न श्लोक में भी जो ण करंदि दु ख कम्मफलं तह य सम्बधम्मेसु । मार्तध्यानको कृष्ण-नील-कापोत ऐसी तीन अशुभ सो शिक्कंखो चेदा सम्मादिट्टी मुणेयन्वो ॥ २४८॥ लेश्याओंके बल पर ही प्रकट होने वाला लिखा है अर्थात्- जो धर्मकर्म करके उसके फलकी-इन्द्रिय और साथ ही यह सूचित किया है कि यह बात ध्यान विषयसुखादिकी इच्छा नहीं रखता है-यह नहीं पाप-रूपी दावानलको प्रज्वलित करने के लिये इन्धन- चाहता है कि मेरे प्रमुक कर्मका मुझे अमुक लौकिक के समान है
पल मिले-और न उस फलसाधनकी दृष्टिसे कृष्ण नीलाद्य सल्लेश्याबलेन प्रविजृम्भते । नाना प्रकार के पुण्यरूप धर्मोको ही हष्ट करता हैइदंदुरितदावाचिः प्रसूतेरि-धनोपमम् ॥ ४०॥ अपनाता है और इस तरह निष्कामरूपसे धर्मसाधन
इससे स्पष्ट है कि लौकिक फलोंकी इच्छा रखकर करता है, उसे नि:कांक्षित सम्यग्दृष्ठि समझना चाहिये। धर्मसाधन करना धर्माचरणको दूषित और निष्फल यहां पर मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि ही नहीं बनाता बल्कि उल्टा पापअन्धका कारण भी भी तत्त्वार्थसूत्रमें क्षमादि दश धोंके साथमें 'उत्तम'