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संग्रम की ओर लौ लग गई थी, तो भी गुरुजनों की आज्ञा जब तक न मिली, तब तक बाह्य त्याग नहीं लिया। वर्तमान जैनसमाज इस पद्धति का अनुकरण करे तो बहुत लाभहो ।
३० वर्षकी उम्र में भगवान् ने जगदुद्धार की दीक्षा ली और अपने हाथसे केशलोंच किया । अपने हाथोंसे अपने बाल उखाड़नेकी क्रिया आत्माभिमुखी दृष्टि की एक कसौटी है। प्रसिद्ध उपन्यास लेखिका मरा कोरेली के 'टेम्पोरल पावर' नामक रसिकग्रन्थ में जुल्मी राजाको सुधारनेके लिए स्थापितकी हुई एक गुप्तमण्डलीका एक नियम यह बतलाया गया है कि मण्डली का सदस्य एक गुप्त स्थान में जारर अपने हाथ की नसमें तलवार के द्वारा खून निकालता था और फिर उस खून
वह एक प्रतिज्ञापत्र में हस्ताक्षर करता था ! जो मनुष्य जरासा खून गिराने में डरता हो वह देश रक्षा के महान कार्य के लिये अपना शरीर अर्पण कदापि नहीं कर सकता। इसी तरह जो पुरुष विश्वोद्धार के 'मिशन' में योग देना चाहता हो उसे आत्मा और शरीर का भिन्नत्व इतनी स्पष्टता के साथ अनुभव करना चाहिये कि बाल उखाड़ते समय जरा भी कष्ट न हो । जब तक मनोबलका इतना विकास न हो जाय, तब तक दीक्षा लेन से जगत का शायद ही कुछ उपकार होसके ।
अनेकान्त
[ कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६५
ज्ञान प्राप्त नहीं किया - अभ्यास नहीं किया, वे लोग सम्भव है कि लाभ के बदले हानि करनेवाले हो जाँय । 'पहले ज्ञान और शक्ति प्राप्त करो, पीछे सेवा के लिए तत्पर होओ' तथा 'पहले योग्यता और पीछे सार्वजनिक कार्य' ये अमुल्य सिद्धान्त भगवान् के चरित से प्राप्त होते हैं । इन्हें प्रत्येक पुरुष को सीखना चाहिए।
महावीर भगवान् पहले १२ वर्ष तक तप और ध्यान ही में निमग्न रहे । उनके किये हुये तप उनके आत्मबलका परिचय देते हैं। यह एक विचारणीय बात है कि उन्होंने तप और ध्यान के द्वारा विशेष योग्यता प्राप्त करने के बाद ही उपदेश का कार्य हाथ में लिया । जो लोग केवल 'सेवा करो,–'सेवा करो' की पुकार मचाते हैं उनसे जगत् का कल्याण नहीं हो सकता । सेवा का रहस्य क्या है, सेवा कैसे करना चाहिये, जगत् के कौन-कौन कामों में सहायता की आवश्यकता है, थोड़े समय और थोड़े परिश्रम से अधिक सेवा कैसे हो सकती है, इन सब बातों का जिन्होंने
योग्यता सम्पादन करनेके बाद भगवानने लगातार ३० वर्षों तक परिश्रम करके अपना 'मिशन' चलाया । इस 'मिशन' को चिरस्थायी बनानेक लिए उन्होंने 'श्रावक-श्राविका' और 'साधु-साध्वियों' का संघ या स्वयंसेवक मण्डल बनाया । क्राइस्ट के जैसे १२ एपोस्टल्स थे, वैसे उन्होंने ११ गणधर बनाये और उन्हें गण अथवा गुरुकुलों की रक्षाका भार दिया। इन गुरुकुलों में ४२०० मुनि, १० हजार उम्मेदवार मुनि और ३६ हजार आर्यायें शिक्षा लेती थीं । उनके संघ में १५९००० श्रावक और ३००००० श्राविकायें थीं। रेल, तार, पोस्ट आदि साधनों के बिना तीस वर्ष में जिस पुरुषने प्रचार का कार्य इतना अधिक बढ़ाया था, उसके उत्साह, धैर्य, सहन शीलता, ज्ञान, वीर्य, तेज कितनी उच्चकोटि के होंगे इसका अनुमान सहज ही हो सकता है ।
पहले पहल भगवानने मगध में उपदेश दिया । फिर ब्रह्मदेश से हिमालय तक और पश्चिम प्रान्तों
उग्र विहार करके लोगों के बहमोंको, अन्धश्रद्धा को, अज्ञानतिमिरको इन्द्रियलोलुपताको और जड़वादको दूर किया । विदेहके राजा चेटक, अंगदेश के राजा शतानीक, राजगृहके राजा श्रेणिक और प्रसन्नचन्द्र आदि राजाओं के तथा बड़े बड़े धनिकों को अपना भक्त बनाया । जातिभेद और लिंगभेद का उन्होंने बहिष्कार किया । जंगली जातियों के उद्धार के लिए भी उन्होंने उद्योग किया और उसमें अनेक महे।
महावीर भगवान ओटोमेटिक (Automatic) उपदेशक न थे, अर्थात् किसी गुरु की बतलाई