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________________ वर्ष २, किरण ६] प्राचार्य हेमचन्द्र कथा-ग्रंथ यह प्रन्थ भरा पड़ा है। इतिहासकी पिसे यह महान् समुद्र-समान विस्तृत और अति गंभीर "त्रिषष्टि- उपादेय ग्रंथ है। शलाका पुरुष-चरित्र" और परिशिष्टपर्वग्रन्थ श्राप द्वारा नीति और अन्य अन्य रचित कथा-ग्रन्थ हैं । त्रिषष्टिशलाका पुरुष-चरित्रमें नीति-ग्रन्थोंकी दृष्टिसे “भईनीति" ग्रंथ प्रापकी वर्तमान अवसर्पिणीकालके २४ तीर्थकर, १२ चक्र- रचना कही जाती है। यह १४०० लोक प्रमाण है। वी, ६ बलदेव, ६ यासुदेव और ६ प्रतिवासुदेवका विद्वानों में मतभेद है कि यह ग्रंथ प्राचार्य हेमचन्द्रक. जीवन-चरित्र वर्णित है। यह पौराणिक-कान्य होता हुआ है या नहीं। क्योंकि इसमें वर्णित अनेक बातें प्राचार्य भी मध्यकालीन इतिहासके अनुसंधानमें और खास के व्यक्तित्वके अनुकूल प्रतीत नहीं होती हैं। करके गुजरातके इतिहासकी दृष्टि से उपयोगी साधन इसी प्रकार न्यायबलाबल सूत्राणि, बालभाषा सिद्ध हो सकता है। क्योंकि इसमें हेमचन्द्रकालीन व्याकरण सूत्रवृत्ति, विक्रम सूत्रम्, शेषसंग्रह, शेषसंग्रहसमाज-स्थिति, देशस्थिति, लोक व्यवहार आदि बातोंका सारोद्धार, द्वात्रिंशत्वात्रिंशिका, विजबदनचपेटा, चन्द्रवर्णन मिल सकता है। इससे यह भी पता चलता है लेखविजयप्रकरणम् , इत्यादि ग्रंथ भी प्राचार्य हेमचन्द्रकि आचार्य हेमचन्द्र सुधारक-मनोवृत्तिके महापुरुष के रचित कहे जाते हैं । आईतमत प्रभाकर कार्यालय थे । यह १० वर्षोंमें समाप्त हुआ है। इसका परिमाण पना द्वारा प्रकाशित प्रमाणमीमांसाके भूमिका पृष्ठ ३४००० श्लोक प्रमाण है । रस, अलंकार, छन्द, कथा- और १० पर उक्त ग्रंथोंका उल्लेख किया हुआ है। वस्तु, और काव्योचित अन्य गुणोंकी अपेक्षासे यह इस सम्बन्धमें अनुसंधान करनेकी पावश्यकता है, एक उच्च कोटिका महाकाव्य कहा जासकता है। हेमचन्द्र- तभी कुछ निश्चित् निर्णय दिया जा सकता है। . की पूर्ण प्रतिभाका पूरा-पूरा प्रकाश इसमें उज्ज्वलताके न्याय-मान्य साथ सुन्दरीति से प्रकाशित हो रहा है । संस्कृत न्याय-ग्रंथोंमें दो स्तुति-श्रात्मक अतीसियाँ और काव्य साहित्यका इसे रवाकर समझना चाहिये। डेढ़ अध्यायवाली प्रमाणमीमांसा उपलब्ध है। प्रमाण परिशिष्ट पर्व इसी ग्रंथराजका उपसंहार है। इसमें मीमांसा-ग्रंथ जैनन्याय साहित्यमें अपना विशेष स्थान महावीर स्वामीसे लगाकर युगप्रधान वनस्वामी तक- रखता है । "श्रथ प्रमाणमीमांसा" नामक प्रथम का जीवन-वृत्तान्त वर्णित है । अखण्ड-जैन संघमें सूत्रकी स्वोपश-वृत्तिसे शात होता है कि प्राचार्यश्रीने उत्पन्न होने वाले मतभेद, श्रुतपरम्पराका विच्छेद और व्याकरण, कान्य, और छन्दानुशासनकी रचनाके बाद उद्धार, देशमें पड़े हुए १२ दुष्काल, साधुसंघकी इसकी रचना की थी। यह पांच अध्यायोंमें विभक्त संयमपरायणता और शिथिलता, संघकी महासत्ता, था। प्रत्येक-अध्याय एकसे अधिक श्रानिक बाला मगध-सम्राट श्रेणिक और बिविसार, अजातशत्रु कोणिक, था। किन्तु दुर्भाग्यसे आजकल प्रथम अध्याय (दो संप्रति, चन्द्रगुप्त, अशोकभी, नवनन्द, मौर्योंकी उमति प्रान्दिक बाला) श्रीर दृमर अभ्यायका प्रथम प्रानिक और अपकर्ष, गर्दभिल्लकी बलपूर्वकता, शको द्वारा इस प्रकार केवल द अध्याय ही उपलब्ध है। उपदेशका अंगभंग, आदि अनेक ऐतिहासक वर्णनांसे लब्ध अंशके सूत्रोंकी संख्या १०० है और इस पर
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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