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________________ अनेकान्त [मार्गशिर, वीर-निर्वाण सं०२४६५ बौद्ध साधु चीन पहुँचा । वह एक पह्नवी युवराज पर लिखा हुआ एक ग्रन्थ मिला । १६०४ में जर्मनथा, जो गजगहीको लात मारकर बौद्ध साधु हो गया यात्रियोंको यहाँके आसपाससे अनेक संस्कृत था। वह बहुत बड़ा विद्वान था, चीनमें जाकर ग्रन्थ मिले। एक जगह प्राकृत प्रन्थ लकड़ी पर उसने चीनी भाषा सीखी, फिर चीनी भाषामें बौद्ध खुदे हुए मिले । तुर्किस्तानमें एक जगह सहस्त्र ग्रंथोंका अनुवाद कर बौद्ध धर्म फैलाया। उसके बुद्धकी गुफा के नामसे प्रसिद्ध हैं, उसकी खुदाई तीन बरस बाद लोकक्षेम नामका एक शकसाधु की गई थी, वह फ्रांसीसी विद्वान वहाँ भी पहुंचा वहाँ गया और १८८ ईम्बी तक बौद्ध धर्मका तो दीवारोंपर दसवीं शताब्दीके बौद्ध चित्र देखे । खूब प्रचार करता रहा । २३८ ईमवीमें काबुल १६०० में यहाँसे एक अन्य भी मिला था। इस निवासी बौद्ध साधु मंघभूतिने तीन बौद्ध ग्रन्थों फ्रांसीसी विद्वानने अधिक खोज करो तो गुफाके का चीनी भाषामें अनुवाद किया। बुद्ध यशस अन्दर एक छोटी गुफा मिली जिसमें ग्रन्थ ही ग्रन्थ पुन्यतर और विमलाक्ष नामके तीन बौद्ध साधुओं भर रहे थे। यह पन्थ चीनी तिब्बती और संस्कृत ने चीन जाकर बौद्ध धर्मका प्रचार किया। ४०३ भाषामे थे, पंद्रह हजार पुस्तके थीं, १०३५ ईसवी ईस्वी में धर्मरक्ष माधु चीन गया। में आक्रमण कारियोंके डरसे ये पुस्तकं एक गुफामें रखकर ईंटोंसे चिनाई करदीगई थी। बहुतसे कुमारजीव नामका एक तुर्क ३८३ ईस्वीमें ग्रन्थ रेशम पर भी लिखे हुए मिले हैं, इससे स्पष्ट चीन गया, वहाँ उसने संस्कृतकी अनक पुस्तकोंका सिद्ध है कि यद्यपि हिन्दुस्तानमें बोद्ध धर्मकी अनुवाद चीनी भाषा में किया और उनके द्वारा समाप्ति बहुत पहले होगई, परन्तु अफगानिस्तान वहाँ बौद्ध धर्म फैलाया। इसके ढाई सौ बरस और तुर्किस्तान अदिमें वह बहुत दिनोंतक बनारहा बाद तकका भी पता लगता है कि उस वक्तभी और बहुत ही उन्नत अवस्थामें रहा। तुर्किस्तान संस्कृत विद्याका केन्द्र था। तुर्किस्तानके राजा स्वर्णपुष्यका पुत्र स्वर्णदेव बड़ाही धर्म-निष्ठ इसप्रकार हिन्दुस्तानसं बाहर तो काबुल, बौद्ध था। ५८० ईस्वीमें अफगानिस्तानके बौद्ध कंधार, बलम्न, बदखशा, नुतन और बाम्नतरसं साधु ज्ञानगुप्तने तुर्क मरदारको बुद्ध धर्मको लेकर चीन तक बौद्ध धर्मके द्वारा अहिंसापरमोदीक्षा दी थी। ६२६ ईस्वीमें प्रभाकरमित्र नामका. धर्म: का डंका बजरहा था, परन्तु हिन्दुस्तानमें बौद्ध साधु धर्म प्रचारके वास्ते तुर्किस्तानसं चीन शक राज्य समाप्त होजानेपर, फिरसे हिंसामय गया था। १८६० ईस्वीमें तुर्किस्तान के एक स्तूपमें वैदिकधर्मका प्रचार शुरु होगया था। और दिनसे भोजपत्रपर लिखी हुई एक संस्कृतकी पुस्तक दिन जोर पकड़ता जाता था । मौर्य-गज्य समाप्त मिली,इससे भी पहले जर्मनयात्रियोंको तुनिमें होजानेके पश्चात इन शकोंके द्वारा ही बौद्धधर्मका ताड़-पत्रपर लिखे हुए कई ग्रंथ मिले थे। १८६२ बहुत कुछ प्रचार होकर अहिंमा परमोधर्मः का ईस्वीमें फ्रांसीसी यात्रीको खुतनके पास भोजपत्र प्रचार होता रहा है, महाप्रतापी शकगजा कनिष्कके
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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