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________________ आये हुए विषयोंका वर्गीकरण करनेके साथ कठिन विषयोंको, वादी प्रतिवादीके रूपमें शंका समाधान उपस्थित करके, प्रत्येक श्लोकके अन्तमें उसका भावार्थ देकर समझाया है, और इस तरह ग्रंथको संस्कृत और हिन्दीकी अनेक टीका-टिप्पणियोंसे समलंकृत बनाया है । सम्पादक महोदयने जैन, बौद्ध, न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा, वेदान्त, चार्वाक और विविध परिशिष्ट नामके आठ परिशिष्टोंद्वारा इस ग्रंथको और भी अधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया है। इन परिशिष्टोंमें छह दर्शनोंके मूल सिद्धातोंका नये दृष्टिकोणसे विवेचन किया गया है, और साथ ही इनमें दर्शनशास्त्रके विद्यार्थियोंके लिये पर्याप्त सामग्री उपस्थित की गई है। इस ग्रंथके आरंभमें ग्रंथ और ग्रंथकारका परिचय देते हुए, ' स्याद्वादका जैनदर्शनमें स्थान ' यह शीर्षक देकर, स्याद्वादका तुलनात्मक दृष्टिसे विवेचन किया गया है। स्याद्वादमंजरीके अतिरिक्त इस संस्करणमें हेमचन्द्राचार्यकी अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका भी हिन्दीअनुवाद सहित दी गई है । इस ग्रंथके प्राक्कथन-लेखक हिन्दूविश्वविद्यालयके दर्शनाध्यापक श्रीमान् पं० भिस्वनलालजी आत्रेय, एम० ९०, डी० लिट हैं। अन्तमें आठ परिशिष्ट, तथा तेरह अनुक्रमणिकायें हैं। यह ग्रंथ हिन्दूयूनिवर्सिटी काशीके एम० ए० के कोर्समें, और कलकत्ता यूनिवर्सिटीके न्यायमध्यमाके कोर्समें नियत है। कपड़ेकी सुन्दर जिल्द बँधी हुई है । पृष्ठसंख्या ५३६ है, मूल्य भी सिर्फ ४॥ ) है। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र अर्थात् अर्हत्सवचनसंग्रह-मोक्षशास्त्र-तत्त्वार्थ मूत्रका संस्कृतभाष्य और उसकी प्रामाणिक भाषाटीका। श्रीउमास्वातिकृत मूल सूत्र स्वोपज्ञभाष्य, (संस्कृतटीका) और विद्यावारिधि पं० खूबचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकृत भाषाटीका सहित । जैनियोंका यह परमाननीय ग्रन्थ है, इसमें जैनधर्मके सम्पूर्ण सिद्धान्त आचार्यवर्यने बड़े लाघवसे संग्रह किये हैं । सिद्धान्तरूपी सागरको मथके गागर (घड़े ) में भर देनेका कार्य अपूर्व कुशलतासे किया है। ऐसा कोई तत्त्व नहीं, जिसका निरूपण इसमें न हो। इस ग्रन्थको जैनसाहित्यका जीवात्मा कहना चाहिए। गहनसे गहन विषयका प्रतिपादन स्पष्टतासे इसके सूत्रोंमें स्वामीजीने किया है। इस ग्रंथपर अनेक आचार्याने अनेक भाष्य-संस्कृतटीकायें रची है । प्रचलित हिन्दीमें कोई विशद और सरल टीका नहीं थी, जिसमें तत्त्वोंका वर्णन स्पष्टताके साथ आधुनिक शैलीसे हो । इसी कमीकी पूर्तिके लिये यह टीका छपाई गई हैं। विद्यार्थियोंको, विद्वानोंको, और मुमुक्षुओंको इसका अध्ययन, पठन-पाठन, स्वाध्याय करके लाभ उठाना चाहिए । यह ग्रन्थ कलकत्ता यूनिवर्सिटीके न्यायमध्यमाके कोर्समें है। प्रन्धारंभमें विस्तृत विषयमूची है, जिसे ग्रंथका सार ही समझिये। इसमें दिगम्बर श्वेताम्बर सूत्रोंका भेदप्रदर्शक कोष्टक और वर्णानुसारी मूत्रांकी मूची भी है, जिससे बड़ी सरलता और सुभीतेसे पता लग जाता है कि कौन विषय और सूत्र कौनसे पृष्ठमें है । ग्रंथराज स्वदेशी कागजपर बड़ी शुद्धता और सुन्दरता पूर्वक छपा है । ऊपर कपड़ेकी मुन्दर जिल्द बंधी हुई है । इतनी सब विशेषतायें होते हुए भी बड़े आकारके ४७६+२४५०० पृष्ठोंके ग्रंथका मूल्य लागतमात्र
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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