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वर्ष २, किरण १२]
अतीतके पृष्ठोंसे
पुण्यात्मा जिनदत्ताके धर्म-प्रेमका प्रभाव ! अपने धर्म-प्रभावसे साफ बच गई ! जो दुष्टा थी !
* * मारी गई वह !' । दोनोंने सुना ! कनकश्रीकी असामयिक मृत्यु- यह-नगर-देवताकी प्रेरणाका फल था । सत्यता का सम्बाद ! कुछ आश्चर्य, कुछ शोक ! और सिर छिपी न रह सकी। ....."महाराजने सुना तो पश्चापर महान संकटके घनघोर बादल !
तापसे झुलसने लगे, 'ऐसी पवित्रात्माओं पर यह 'कहा था न ? इस प्रकारके विवाह सम्बन्धका कलंक ? जो देव पूज्य हैं !' परिणाम शुभ नहीं होता!' -ऋषभदामने कहा! बन्धुश्री पर महाराजको कोपाग्नि धधक
'ठीक है-नाथ !'-जिनदत्ताने दबी जुबानसे उठी ! दिया गम उसे घोर-दण्ड !उत्तर दिया !
'गधे पर चढ़ाकर देश-निर्वासन !' 'अब जो हो अपना भाग्य !'
जनताने देखा-ऋषभदास और जिनदत्ता कापालिक चिल्लाता नगर परिक्रम कर रहा पर पुष्प वर्षा हो रही है ! और आकाश हो रहा था-'कनकश्री को मैंने मारा है, जिनदत्ता और है धन्य धन्य शब्दोंसे व्याप्त ! ऋषभदास निर्दोष हैं ! बन्धुश्रीने मुझे जिनदत्ताको अचित्य धर्म शक्ति !!! मरवा देनेके लिए कहा था, लेकिन जिनदत्ता
सुभाषित 'सन्त लोगोंका धर्म है अहिंसा; मगर योग्य पुरुषोंका धर्म इस बातमें है कि वे दूसरोंकी निन्दा करनेसे परहेज करें।'
'खुश इख्लाक़ी मेहरबानी और नेक तरबियत इन दो सिफ्तोंके मजमुएसे पैदा होती है।'
'समृद्ध अवस्था में तो नम्रता और विनयकी विस्फूर्ति करो; लेकिन हीन स्थितिके समय मानमर्यादाका पूरा स्खयाल रक्खो।'
'प्रतिष्ठित कुलमें उत्पन्न हुए मनुष्यके दोष पर चन्द्रमाके कलङ्ककी तरह विशेषरूपसे सबकी नजर पड़ती है।
'रास्तबाजी और हयादारी स्वभावतः उन्हीं लोगोंमें होती है, जो अच्छे कुलमें जन्म लेते हैं।' 'सदाचार, सत्य प्रियता और सलज्जता इन तीन चीजोंसे कुलीनपुरुष कभी पदस्खलित नहीं होते।'
'योग्य पुरुषोंकी मित्रता दिव्य प्रन्थोंके स्वाध्यायके समान है। जितनी ही उनके साथ तुम्हारी घनिष्ठता होती जायगी उतनीही अधिक खूबियाँ तुम्हें उनके अन्दर दिखाई पड़ने लगेंगी।'
-तिरुवल्लुवर