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________________ योनिप्राभृत और प्रयोगमाला [ लेखक - श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी, बम्बई ] +£C+103++ ' नेकान्त' के श्राषाढ़ के कमें उक्त शीर्षकका जो लेख प्रकाशित हुआ है उसीके सम्बन्ध में कुछ निवेदन करने के लिए ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ । मेरी समझ में 'वृहट्टपणिका' नामकी सूची में जो विक्रम संवत् १५५६ में तैयार की गई थी जिस 'योनिप्राभृत' का उल्लेख है वह उस समय जरूर मौजूद रहा होगा । वह सूची एक श्वेताम्बर विद्वान्ने प्रत्येक ग्रन्थ देखकर तैयार की थी और अभी तक वह बहुत ही प्रमाणिक समझी जाती है । उसमें जो योनिप्राभूतको घरसेनाचार्य कृत बतलाया है और उसकी लोकसंख्या ८०० लिखी है, सो इन दोनों बातों में सन्देह करनेका कोई कारण नहीं मालूम होता । हाँ, उसमें जो इस ग्रंथके निर्मित होने का समय वीर निः संवत् ६०० दिया है, वह घरमेन कब हुए — इस विषय में जो परम्परा चलो श्रा रही थी उसीके अनुसार लिख दिया गया होगा । उसके बिल्कुल ठीक होनेकी तो एक ग्रंथ-सूचीकर्त्तासे आशा भी नहीं की जा सकती । श्रुतावतार के कर्त्ता-इन्द्रनन्दि तकने जब यह लिखा है कि गुणधर और धरसेनकी पूर्वपरम्परा और पश्चात्परम्परा हम लोगोंको मालूम नहीं है तब एक श्वेताम्बर विद्वान् उनके समयको ठीक ठीक कैसे लिग्य सकेगा ? धवल ग्रंथ में जिस 'जोणी पाहुड' का उल्लेख किया गया है. हमारी समझमें वही घरसेनकृत योनिप्राभृत होगा जिसकी प्रति बृट्टिप्पणकार के सामने थी । श्र + गुणधर-धरसेनान्वगुर्योः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्वय - कथकागममुनिजनाभावात् ॥ रहा पूने भांडारकर रिसर्च इन्स्टिट्यूटका योनिप्राभूत, सो उसके विषय में निश्चयपूर्वक तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता परन्तु संभवतः वह पंडित हरिषेणका ही बनाया हुआ होगा । पं० बेचरदासजीने और उन्हींका अनुगमन करके पं० जुगलकिशोरजीने जो यह अनुमान किया है कि योनिप्राभृत संभवतः श्रभिमानमेरु ( महाकवि पुष्पदन्त ) का भी बनाया हुआ हो सो मुझे ठीक नहीं मालूम होता । क्योंकि एक तो 'अहिमाणेण विरइयं' ( अभिमानेन विरचितं ) पद में केवल 'अभिमान' शब्द श्राया है और पुष्पदन्तका उपनाम 'अभिमान' नहीं किन्तु 'श्रभिमानमेरु' है और दूसरे उक्त पद जिस गाथाका है उस का अर्थ समझने में ही भूल हो गई है । कुवियगुरुपाय मूले न हु लन्द्वं अम्हि पाहुडं गंथं । हिमाणेण विरइयं इय अहियारं सुसश्रो ॥ इस गाथाका सीधा और सरल अर्थ यह होता है कि कुपित या क्रोधित गुरु चरणोंके समीप जब मुझे ( पं० हरिषेणको ) प्राभृत ग्रंथ नहीं मिला तब मैंने अभिमानसे इस अधिकारकी रचना की । यही बात उनके निम्नलिखित वाक्यसे भी ध्वनित होती है- इति परिहतहरिषेण मया योनिप्राभृताला भे स्वसमयपरसमयवैद्यकशास्त्रसारं गृहीत्वा जगरसुन्दरीयोगमालाधिकारः विरचितः । अर्थात् (गुरुके पाससे) योनिप्राभृतके न मिलने पर मैंने -- पं० हरिषेणने -- जैन जैन वैद्यक शास्त्रोंका
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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