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________________ वर्ष २, किरण १२] योनिप्राभृत और प्रयोगमाला सार लेकर यह योगमालाधिकार रचा। समझते हैं, यह इस बातसे भी जान पड़ता है कि २०३ यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि किसी कारणसे ना- पत्रके दूसरे पृष्ठ पर 'भणेमि जयसुंदरी नाम' के प्रतिज्ञाराज़ होकर गुरुदेवने प्राभृत ग्रंथ नहीं दिया हो और तब वाक्यके बाद ही कुछ भागे चलकर लिखा है योनिप्राभृते रूठकर अभिमानी हरिषेणने इसकी रचना कर डाली हो। बालानां चिकित्सा समाप्ता।' यह मैं पं.बेचरदासजीके पंडित बेचरदासजीके बाद मैंने भी योनिप्राभृत लिये हुए नोटोंके प्राधार पर ही लिख रहा हूँ। संभव ग्रन्थकी प्रति बहुत करके सन् १९२२ में पूने जाकर है, नोटोंमें पत्रसंख्या लिखते हुए कुछ भूल हो गई हो। देखीथी और उसके कुछ नोट्स लेकर एक 'ग्रंथ-परिचय' योनिप्राभृतके एक बिना अंकके पत्रकी नकल उसी लेख लिखने का विचार किया था। पं० बेचरदासजीके समयकी की हुई मेरी नोटबकमें भी सुरक्षित है। उसे मैं वे नोट्स भी इसी लिए मँगा लिये थे जिनके श्राधारसे यहाँ ज्योंकी त्यों दिये देता हूँ-- . अनेकान्तका उक्त लेख लिखा गया है। _ "सं । सौंपधि रिबिसंयुक्तं ॥ ? यद्यपि इस बातको लगभग १७ वर्ष हो चुके हैं, तारकोसं मानमहोदधिः परशिकारवरसाकरी फिर भी योनिप्राभृतकी उक्त प्रतिकी लिपि और श्राकार- यंत्रमातृका विश्वकर्मा "रिवं भम्बजनोपकारकं मिथ्याप्रकारका जहाँ तक मुझे स्मरण है वह एक ही लेखककी एटिनिरसनपटीवसं करपंचेता कस्तूरिकानेपानं लिखी हुई एक ही पुस्तक मालूम होती थी। दो जुदा- घनानिलराजमंदमसकसकेतु "सागरोमिवरवामकं । जुदा ग्रंथों के पत्र एकत्र हो गये हों ऐसा नहीं जान पड़ता ज्वर-भूत शाकिनी ध्वान्त मार्तवं समस्तशालोत्पत्ति था । प्रतिकी हालत इतनी शोचनीय थी कि उसमें हाथ योनि विद्वजनचित्तचमत्कारं पंचमकामासर्वशं सर्वलगाते हुए डर लगता था कि कहींसे कोई अंश झड़ विद्याधातुवादनिधानं जनम्यवहारचंदचंद्रिकाकोर न जाय । बहुत पुरानी होनेसे ही प्रति जीर्ण हो गई हो मायुर्वेदरपितसमस्तसत्त्वं प्रश्नश्रवणमहामुनिमासो बात नहीं है । ऐसा मालूम होता है कि कभी किसी- उिनीमहादेम्या उपदिष्टं पुष्पवंताविभूतविसिष्य की असावधानीसे वह भीग गई है और फिर उसी हालत दृष्टिदायकं इत्थंभूतं योनिमाभृत ग्रंथं ॥६॥ में पड़ी रहनेसे गल गई है । मेरा खयाल है कि या तो कलिकाले सम्बण्डू जो जाणइ जोशिपाहु गंध । यह सम्पूर्ण ग्रंथ पं० हरिषेणका ही सम्पादित किया जच्छ गमो तच्छ गमो पटवां महच्छि"।" हुआ है और 'जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला' उसीका एक सुरवसनपसंसं सुवरणसहियं च रोखुहर" । भाग है, जिसे उन्होंने अनेक वैद्यक ग्रन्थोंके आधारसे मन्वउवयार “माच्छी कोसं पाहुर ॥२ लिखा है और या योनिप्राभृतका कुछ अंश उन्हें मिला दरविरसियम्म माइविष सियाम्बहुवाई। हो और उसके बाद गुरुकी अप्रसन्नतासे शेष अंश न नाति जस्सडवरे का उवमा पुंडरीकस्स ॥१ मिला हो और तब उन्होंने अभिमानवश उसे स्वयं पूरा हो उहामवियंभं तमं मिवंतासि मुरक्षियकोला । कर डाला हो। विभकायम्मि करिणो नरबेमह "रिया ॥४ अपने जगत्सुन्दरी योगाधिकारको वे भी शायद ............"बहीएका उखमा । योनिप्राभूतमे जुदा नहीं मानते हैं-उभीका एक अंश महमपमाशगवनेसन सीमी व मादेव
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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