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________________ अनेकान्त [अाश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६५ हीणसत्तम्मि मह मे महि खीए सबक...... महामुनि-कुष्मांडिनमहादेव्या उपदिष्टं' और 'पुष्पदन्ता.........."कुपिजह प्रयावदोसम्मि भत्ता दिभूतबलिशिष्यदृष्टिदायक' ये विशेषण स्वयं प्रश्नएकच पयच्छं अवहे जो मुनह इक महियारं ।। श्रवण मुनिके दिये हुए तो नहीं हो सकते । सो गहबरिदि......... सम्व पहिवारी . - इसके सिवाय शुरूके १७ पृष्ठोंमेंसे जो हर्षचिकित्सा, काल"मना मनीहन नृणामहम्मते स्यादति- विचर्चिका चिकित्मा, धर्मप्रयोग, अमृतगुटिका, शिव यथेषः प्रियधर्मकः पृथुषशाः श्रीपूज्यपादो गुरुः । । गुटिका, विषररण आदि विषय हैं और जिन्हें योनिप्रा................"म प्रोद्भुतचिंतामणि भृतके अंश माना है, वे जगसुन्दरी योगमाला के प्रमेहायोनिप्राभृतसंज्ञांसममसं देवासुराभ्यर्चितं ॥ ८ धिकार, मूत्रचिकित्सा आदि विषयोंसे कुछ अनोखे नहीं सावम्मिथ्यादा तेजो मंत्र हैं, दोनों ही ऐसे हैं जो हारीत, गर्ग,सुश्रुत श्रादि ग्रंथों में................."न खंति धीमतः ॥ से संग्रह किये जा सकते हैं । तब अधिक संभव यही है इति श्रीमहाग्रंथयोनिप्राभृतं श्रीपश्रवणमुनि- कि सम्पूर्ण ग्रन्थ हरिषेणका ही सम्पादित किया हुआ विरचितं समासं छ॥ होगा। संवत् ११८२ वर्षे शाके १४४७ प्रवर्तमाने दकि- 'प्रश्नश्रवण' यह नाम भी कुछ अद्भुत है । इस सानगते श्रीसूर्ये श्रावणमासकृष्णपणे तृतीयायां तरहका कोई नाम अभी तक देखनेमे नहीं पाया । तिथौ गो"शातीय पं०नला....."लिखितं । छ । शुभम् प्राकृतमें सब जगह 'पणह-समणमुणि' लिखा है, यहाँ भवतु ।" ... तक कि 'इति महाग्रंथं योनिप्राभृतं श्रीपरहसवणमुनि __पंडित बेचरदास जीके नोटोको अपेक्षा इसमें कुछ विरचितं समाप्तं' इस संस्कृत पुष्पिकामें भी पहसवण अधिक है, यद्यपि ग्रंथके महात्म्यके अतिरिक्त विशेष ही लिखा है जो पबहसमण है और जिसका संस्कृतरूप उल्लेखनीय कुछ नहीं मालम होता और बीच बीचके प्रज्ञाश्रमण होता है। प्रज्ञाश्रमणत्व एक ऋद्धि है जिसके अक्षर गल जानेसे ठीक ठीक अर्थ भी नहीं लगाया धारण करनेवाले मुनि प्रज्ञाश्रमण कहलाते थे । 'तिलोयजा सकता है। पएणति' की गाथा नं०७०में लिखा है___ इस अंशके लिए पंडितजीके नोटोंमें लिखा हुआ परहसमोसु चरिमो वइरजसो बाम.....। है कि 'योनिप्राभूतनुं छेल्लु अने अंक बिनानुं एक कोर अर्थात् प्रज्ञाश्रमणोंमें अन्तिम मुनि वज्रयश हुए । कोळं पार्नु' अर्थात् योनिप्राभृतका अन्तिम और बिना उनके बाद कोई प्रशाश्रमण ऋद्धिका धारी नहीं हुआ। अंकका एक तरफ कोरा पत्र । इस पत्र में ग्रन्थकी समाप्ति अत्यन्त सूक्ष्म अर्थको सन्देहरहित निरूपण करनेवाली और ग्रंथ लिखे जानेका समय दिया है और इसके आगे. जो शक्ति है उसे प्रशाशक्ति कहते हैं। क पत्र बिल्कुल कोरा है। मेरी समझमें सम्पर्ण ग्रन्थका इससे तो ऐसा मालूम होता है कि प्रज्ञाश्रमण नाम यही अन्तिम पृष्ठ होना चाहिए । नहीं किन्तु किसी मुनिका विशेषण है। उक्त पत्रमें जो विशेषण दिये गये हैं वे भी अनेकान्तके पृ० ४८७ की टिप्पणीमें इस बात पर श्रीहरिषेणके लिखे हुए ही जान पड़ते हैं । 'प्रश्नश्रवण शंका की है कि पं० बेचरदास जीने भूतबलि पुष्पदन्तको
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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