SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ष २ किरण ] जैन-समाज क्यों मिट रहा है ? उन्हें सान्त्वना देते हुये कहा कि “जिसे धर्म-बन्धु सं० १२०६ में श्री० वर्द्धमानसूरिने चौहानोंको कहते हैं उसे जाति-वन्धु कहने में हमें कुछभी और सं० ११७६ में जिनवल्लभसूरिने परिहार संकोच नहीं होता है । श्राजहीसे हम तुम्हें अपनी राजपूत राजाको और उसके कायस्थ मंत्रीको जैन जातिके गर्भ में डालकर एक रूप किये देते हैं ।" धर्ममें दीक्षित किया और लूटमार करने वाले इस प्रकार खंडेलवालोंने बीजावर्गियोंको मिलाकर खीची राजपूतोंको जैन बनाकर सन्मार्ग बताया । बंटी-व्यवहार चालू कर दिया । (स्याद्वादकेसरी गुरु जिनभद्रसरिने राठोड़ राजपूतों और परमार गोपालदासजी बरैया द्वारा संपादित जनमित्र वर्ष ६ गजपतीको संवन १९६७ में जैन बनाया। अङ्क १ पृष्ठ १२ का एक अंश ।) संवत ११६६ में जिनदत्तसूरिने एक यदुवंशी ७.---जोधपुरके पाससे संवन ६०० का एक राजाको जैन बनाया । ११६८ में एक भाटी राजपूत शिलालेख मिला है। जिससे प्रगट है कि सरदारने राजाको जैन बनाया। जन-मन्दिर बनवाया था । उसका पिता क्षत्रिय श्री जिनसनाचार्यने तोमर, चौहान, साम, और माता ब्राह्मणी थी। चदला, ठीमर, गौड़, सूर्य, हेम, कछवाहा, सोलंकी, ८-राजा अमोघवर्पने अपनी कन्या विजातीय कुरु, गहलोत, साठा, मोहिल, श्रादि वंशके राजपूतों गजा गजमल्ल सप्तवादको विवाही थी को जैन धर्म में दीक्षित किया। जो सब खंडेलवाल वि० सं० ४०० वर्ष पूर्व ओसिया नगर जैन कहलाये और परम्पर रोटी-बंटी व्यवहार (गजपताना) में पमार राजपत और अन्य वर्गात स्थापित हुआ। मनुष्य भी रहते थे । सब वाममार्गी थे और माँस श्री० लोहचार्यके उपदेशसे लाखों अग्रवाल मदिरा खाते थे उन सबको लाखोंकी संख्या श्री० फिरसे जैन-धर्मी हुयं । रत्नप्रभुसूरिने जैन धर्म में दीक्षित किया । श्रोसिया इस प्रकार १६ वीं शताब्दीतक जैनाचार्यों नगर निवासी होने के कारण वह सब श्रोसवाल द्वारा भारतके भिन्न-भिन्न प्रान्तोंमें करोड़ोंकी कहलाय । फिर राजपूताने में जितने भी जैन-धर्ममें संख्यामें जैन धर्ममें दीक्षित किये गये। दोक्षित हुये, वह सब ओसवालोंमें सम्मलित इन नवदीक्षितोंमें सभी वर्गों के और सभी श्रेणाहोते गये। के गजा-रंक सदाचारी दुराचारी मानव-वर्ग था । ___ संवत् १५४ में श्री. उद्योतसरिने उज्जैनके दीक्षित होने के बाद कोई भेद-भाव नहीं रहता था। राजा भोजकी सन्तानको (जो अब मथुरामें रहने जिस धर्ममें विवाहके लिये इतना विशाल लगे थे और माथुर कहलाते थे) जैन बनाया और क्षेत्र था, आज उसके अनुयायी संकुचित दायरेमें महाजनोंमें उनका रोटी-बंटी सम्बन्ध स्थापित फँसकर मिटने जारहे हैं । जैनधर्मको मानने वाली किया। कितनी ही वैभवशाली जातियाँ, जो कभी लाखों *(जैनधर्मको उदारता पृ० ६३-७१)
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy