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प्रभाचन्द्रके समयकी सामग्री
द्वितीय लेख] । लेखक-पं. महेन्द्रकुमार न्याय-शास्त्री.]
व्योमशिवाचार्यका समयादिक राजशेखरने प्रशस्तपादभाष्यकी 'कन्दली' अवश्य लिखा है; क्योंकि उसी प्रशस्ति-शिलालेख
'टीकाकी पंजिका' में प्रशस्तपादभाष्यकी में अत्यन्त स्पष्टतासे यह उल्लेख है कि- 'इनके चार टीकाओंका इस क्रम निर्देश किया है-- वचनोंका खण्डन आज भी बड़े बड़े नैयायिक सर्वप्रथम व्योमवती' (व्योमशिवाचार्य), नहीं कर सकते ।' म्याद्वादरत्नाकर आदि ग्रन्थों में नत्पश्चात् 'न्यायकन्दली' ( श्रीधर ), तदनन्तर पुरन्दरके नामसे कुछ वाक्य उद्धृत मिलते हैं, 'किरणावली' ( उदयन ) और उसके बाद सम्भव है वे पुरन्दर ये ही हों। इन पुरन्दग्गुरुको 'लीलावती' ( श्रीवत्साचार्य )। पतिापर्यालोचनास अवन्तिवर्मा गजा उपेन्द्रपुरसे अपने देशको ले भी राजशेखरका यह निर्देशक्रम मंगत जान पड़ता गया । अवन्तिवर्माने इन्हें अपना राज्यभार मौंप है। इस लेखमें हम व्योमवतीके रचयिता कर शैवदीक्षा धारण की और इस तरह अपना व्योमशिवाचार्य के विषयमें कुछ विचार प्रस्तुत जन्म सफल किया। पुरन्दग्गुमने मत्तमयरपुरमें करते हैं।
एक बड़ा मठ स्थापित किया। दृसग मठ रणिपद्रव्योमशिवाचार्य शैव थे । अपनी गुरु परम्पग पुग्में भी इन्होंने स्थापित किया था। पुरन्दरगुनका तथा व्यक्तित्वके विषयमें स्वयं उन्होंने कुछ भी कवचशिव और कवचशिवका सदाशिव नामक नहीं लिखा। पर रणिपद्रपुर रानोद, वर्तमान शिष्य हुश्रा, जो कि रणिपद्र नामके तापसाश्रम नारोदनाम की एक वापी-प्रशस्ति * से इनकी गुरु. में तप: माधन करता था। सदाशिवका शिष्य परम्परा तथा व्यक्तित्व-विषयक बहुतसी बाते हृदयेश और हृदयेशका शिष्य व्योमशिव हुआ, मालूम होती हैं, जिनका कुछ सार इस प्रकार है- जोकि अच्छा प्रभावशाली, उत्कट प्रतिभासम्पन्न ___ कदम्बगुहाधिवासी मुनीन्द्र के शहमठिकाधि- और समर्थ विद्वान था।' व्योमशिवाचार्यके प्रभावपति नामक शिष्य थे, उनके तेरम्बिपाल, तेरम्बि- शाली हानेका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि पालके अामर्दकतीर्थनाथ और भामर्दकतीर्थनाथ- इनके नामसे ही व्योममन्त्र प्रचलित हुए थे । 'ये के पुरन्दरगुरु नामके अतिशय प्रतिभाशाली ।
____x यस्याधुनापि विबुधैरितिकृत्यशंसि, व्याहन्यते तार्किक शिष्य हु' । पुरन्दरगुमने कोई अन्य न वचनं नयमार्गविधिः ॥
*प्राचीन लेखमाला दि. भाग, शिलालेख नं. "अस्य व्योमपाददिमन्त्र रचनाख्याताभिधानस्य १०८।
च।"-बापीप्रशस्तिः