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________________ . अनेकान्त [वैशास्त्र, वीर-निर्वाण सं०२४६ दोनों ही रूपसे उनै दूषित किया है। साथ ही, इसकी शास्त्रका विशद विवेचन हो और उसके द्वारा नित्यादिपुष्टिमें निम्न वाक्य 'तदुक्तं' रूपसे दिया है:- एकान्तबादियोंको दूषित ठहराया गया हो । नयके प्रसिद्ध सिद्धसेनस्य विरुवं देवनन्दिनः। लक्षणको लिये हुए वह उल्लेख इस प्रकार है:इयं समन्तभद्रस्य सर्वकान्तसाधनमिति ॥ "तथा सारसंग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपादैरनन्तपर्यात्मकस्य एकांत साधनाको दूषित करनेमें तीन विद्वानोंकी वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो प्रमिटिका यह लोक सिद्धिविनिश्चय टीका और न्याय- निरर्वद्यप्रयोगोनय इति । विनिश्श्य-विवरणमें निम्न प्रकारसे पाया जाता है: -'वेदना' खण्ड ४ , असिद्धः सिद्मसेनस्य विरुद्धो देवनन्दिनः। ऊपरके सब अवतरणों एवं उपलब्ध ग्रंथोंपरसे । पा समंतभद्रस्य हेतुरेकांतसाधने ॥ पूज्यपादस्वामीकी चतुर्मुखी प्रतिभाका स्पष्ट पता चलता न्यायविनिश्चय-विवरणमें वादिराजने इसे 'तदुक्तं' है और इस विषयम कोई संदेह नहीं रहता कि आपने पदके साथ दिया है और सिद्धिविनिश्चय-टीकामें अनन्त- उस समयके प्रायः सभी महत्वके विषयोंमें प्रन्योंकी वीर्य प्राचार्यने इस लोकको एकबार पाँचवें प्रस्तावमें रचना की है। आप असाधारण विद्वत्ताके धनी थे, ,“यवायत्यसिद्धः सिद्धसेनस्य" इत्यादि रूपसे उद्धृत सेवा-परायणों में अग्रगण्य थे, महान दार्शनिक थे, अद्विकिया है, फिर छठे प्रस्तावमें इसे पुनः परा दिया है तीय वैयाकरण थे, अपूर्व वैद्य थे, धुरंधर कवि थे, बहुत और यहाँ पर इसके पदोंकी व्याख्या भी की है। इससे बड़े तपस्वी थे, सातिशय योगी थे और पज्य महात्मा थे। यहरलोक कलंकदेबके सिद्धिविनिश्चय ग्रंथके लक्ष- इमीसे कर्णाटकके प्रायः सभी प्राचीन कवियोंने-सा यसिद्धि' नामक बठे प्रस्तावका है। जब अकलकदेव की८वीं, हवी, १०वीं शताब्दियोंके विद्वानोंने-अपने जैसे प्राचीन-विक्रमकी सातवीं शताब्दीके-महान् ग्रंथोंमें बड़ी श्रद्धा भक्तिके साथ प्रापका स्मरण किया है प्राचार्यों वकने पूज्यपादकी ऐसी प्रसिद्धिका उल्लेख और आपकी मुक्तकंठसे खूब प्रशंसा की है। किया है वब यह बिल्कुल स्प है कि पूज्यपाद एक जीवन-घटनाएँ। बहुत बड़े तार्किक विद्वान् से नहीं थे बल्कि उन्होंने आपके जीवनकी अनेक घटनाएँ हैं-जैसे, १ विदेस्वतंत्ररूपसे किसी न्यायशासकी रचना भी की है, जिसमें हगमन,२पोर तपादिके कारण आँखोकी ज्योतिका नष्ट नित्यादि-एकान्तवादोंको दूषित ठहराया गया है और हो जाना तथा 'शान्त्यष्टक' के एकनिष्ठा एवं एकाग्रताजो इस समय अनुपसन्ध है अथवा जिसे हम अपने पूर्वकसाठसे उसकी पुनः सम्माप्ति,३ देवताओंसे चरणोंका प्रमाद एवं अनोखी श्रुतभक्तिके यश खो चुके हैं! यह शान्त्यष्टक 'न स्नेहाच्छरणं प्रवान्ति सारसंग्रह भगवन्' इत्यादि पद्यसे प्रारम्भ होता है और 'दराश्रीवलसिद्धान्तके एक उखसे यह भी पता भक्ति' भादिके साथ प्रकाशित भी हो चुका है। चलता है कि पूम्पपादने 'सारसंग्रह' नामका भी कोई इसके अन्तिम चार पधमें 'मम मक्किास्यविनो! प्रेस रचाईजो नय-प्रमाण-जैसे कानोको भी लिये परिप्रसधाकुर एसाइपक पाय मी पाया जाता है, हुए है। प्राचर्य नहीं जो उनके इसी अंधमें, न्याय- जो दृष्टि प्रसपताकी प्रार्थनाको लिया है।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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