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________________ मेरे जैन-धर्म-प्रेमकी कथा [.-श्री. पी. एस. सराफ बी० ए०, एलएल.बी., मंत्री सी० पी० हिन्दी-साहित्य सम्मेलन] से स्वर्गीय श्री नन्हूरामजी कण्डयाके श्राभारसे अव- कारण, जो कि मेरे सरल हृदय पिताजीकी और उनकी नत हूँ क्योंकि मुझमें जैनधर्मके प्रति श्रद्धा पैदा थी, पिताजीके अधिक्षेप और आक्रोशमें वह तेजी नहीं करनेवाले वे ही प्रथम व्यक्ति थे। मेरे पूज्यपिताजी परम थी। मैं बराबर कभी कमी जाता रहा और कभी कभी वैष्णव थे और अबसे २५-३० वर्ष पूर्वका संसार जैनमित्र तथा जैन-हितैषी मी पढ़ता रहा। इतनी विशाल-हृदयतासे प्राप्लावित नहीं था। उस यह प्रवृत्ति धीमी धीमी बढ़ती गई । कभी-कभी समय धर्म एक ऐसे हीरकी गांठ था जिसे सबके सामने पज्यपाद पं. गणेशप्रसादजी वर्णी तथा वर्णीजीकी खोलने या अन्य व्यापारियोंके यहाँ जाकर वहाँ उसे पोषक माता श्रीमती चिरोंजा बाईके पवित्र चरित्र खोलकर उसकी भाभा देखने-दिखानेमें उसके छिन तथा त्यागकी कथा भी सुनने में आजाती थी, उनको जानेका मय था। मेरे पिताजी भी इसी धारणाके कायल देखने तथा उनसे बातें सुनने या करनेका कौतूहल 4। मैं कभी कभी सिंघई जीके बड़े मंदिर में माई नन्ह- भी मुझे हो पाता था । धीरे धीरे यहाँकी लालजीके साथ स्वभाव-सारन्यसे ही चला जाया करता शिक्षा समाप्त कर मैं कालेजमें पहुँच गया । कुछ था, कोई कारण विशेष नहीं था-सिर्फ एक मोह तथा समयके उपरान्त वहाँ भी श्रद्धय विद्वान् मित्र हीरालात सुविधा थी, क्योंकि नन्हलालजीके यहाँ भी मेरी जैसी जैन, हाल प्रोफेसर अमरावती कालेजसे मैत्री हुई, सर्राफोकी दुकान थी और वह मेरी दुकानसे लगी हुई एक दो और भी जैन भाई थे जिनके नामका स्मरण नहीं होता । मुझे घरसे ही दिवा-भोजन (अन्थऊ) की एक बार जब पिताजीको शात हुआ कि मैं जैन- आदत होगई थी; लॉ कालेजमें मेरे कारण जैन भाइयोंमन्दिरमें नन्हलालजीके साथ जाता हूँ तो वे बड़े नाराज़ को भी दिवा-भोजनं अच्छी तरह प्राप्त हो जाता था । हुए और कहने लगे कि 'जैनियोंके मन्दिरमें कौन जाता हीरालालजीके साहचर्यसे जबलपुर कालेजमें जैनधर्म की पदे तो नास्तिक होते हैं। इसके बादमें उन्होंने नन्ह- ओर परीक्षानुभति तथा प्रेम बढ़ा, किन्तु इसके बाद लालजीससी एक दो बार यही कह दिया और साथमें जब मैं अलाहाबाद लॉ और एम. ए. कक्षामें प्रविष्ट यह भी कह दिया कि 'मेरे लड़केका धर्म बदलनाहै हुश्रा तब भाई हीरालालजी जैनबोर्डिङ्गमें रहते थे और क्या है तो वे कमाने लगे-'नहीं ककाजी, ये तो लड़के दूसरे भाई जमनाप्रसादजी जैन (अब वैरिस्टर तथा हैं इनके मन्दिरमें जानेसे क्या हानि १ धर्मस्थान जैसा सबजज) भी वही रहते थे । जैनबोर्डिजके वातावरणमें आपका वैसा हमारा, इनपर कोई खराब असर नहीं हो- विशेष शान्ति, मोहकता तथा सारस्य बक्षित होता सकता। फिर भी मुके वे लेजाया करते और पिताजी था। वहाँ मैं अक्सर रहता था और उस अहिंसा तथा भी कमी कभी फिर वही बात मुझसे दुहरा दिया करते स्यावादी विचारधाराके बीच प्रायः करके अपनेको भी .; पर नन्हूलालके प्राग्रह तथा सम्मान्य भावनाके वैसा ही उदार विचारी पाता था।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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