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________________ अनेकान्त [आश्विन, वीर-निर्वाण सं० २४६५ उसका सम्बन्ध घोषित करे। गोम्मटसार-कर्मका- आचरण छोड़कर जैसा कि आजकल अक्सर एडके उक्त गोत्र-लक्षण पर दृष्टि डालनेसे इच्छित देखा जाता है-भविष्यमें भिन्न ही प्रकारके अर्थकी सिद्धि नहीं होती, उल्टा यह मुश्किलसे आचरणको अपना लिया हो तो उस जीवके कुछ मनुष्यों तक ही सीमित सिद्ध होता है; क्योंकि उस सन्तानक्रमके गोत्रका उदय नहीं माना संसारमें ऐसे अनंतानंत जीव हैं जिनकी सन्तान जासकता; क्योंकि उसने उस सन्तानक्रमके आचक़तई नहीं चलती, इसका मैं पूर्व ही धवलाके उच्च रणका परित्याग कर दिया है । तथा वर्तमान पाचनीच-गोत्रके लक्षणोंके जिक्रमें उल्लेख कर आया रणके अनुसार उस जीवके उस गोत्रका उदय भी हूँ। इसलिये देव, नारकी, सम्मूर्छन-मनुष्य और नहीं माना जा सकता; क्योंकि वह आचरण उसका विकलत्रयमें सन्तानक्रमका अभाव होनेसे उनमें सन्तानक्रमका आचरण नहीं । इसीलिये कुलउक्त प्रकारके गोत्रका प्रभाव मानना ही पड़ेगा। परिपाटीके आचरणके अभावमें जीवके किसी भी यदि 'जीवायरण' का अर्थ यहां पर जीवकी जी- गोत्रका उदय न माना-जाना चाहिये और ऊँच वा विका साधन या पेशा अपेक्षित हो तो वह केवल नीच भी नहीं समझना चाहिये । यदि उँच-नीच कर्मभूमिज मनुष्यों में ही मिल सकेगा। अवशिष्ट समझा भी जावे तो उस गोत्रोदयकी वजहसे नहीं; देव, नारकी, तिर्यच और भोगभूमिज जीवोंके तो किन्तु किसी अन्य कर्मोदय या किसी और ही असि, मषि, कृषि प्रादि कोई भी पेशा नहीं होता; वजहसे उसे वैसा मानना युक्ति संगत होगा। इसलिये उनमें वैसे आचरणका अभाव होनेसे गोत्र- ऊपरके इस सब विवेचन परसे, मैं समझता व्यवस्था भी नहीं बनती। इसी तरह 'आचरण' हूँ, पाठक महानुभाव यह सहज ही में समझ का अर्थ धर्मपाल न, व्रतादिधारण आदि मानने सकेंगे कि गोत्रलक्षणोंमें ऐसा कोई लक्षण नहीं पर भी अनेक दूषण पाते हैं, जिनका यहा लेख दीखता जो निर्दोष कहा जासके । प्रायः प्रत्येक बढ़जानेके भयसे उल्लेख नहीं किया जाता। लक्षण अव्याप्ति दोषसे दूषित है। अंतमें विचार__ जीवका जैसे आचरणवाले कुलमें जन्म हुआ शील विद्वानोंसे मेरा सानरोध निवेदन है कि वे यदि भविष्यमें उसका उसी सन्तान-परिपाटीके उक्त विषयके निर्णयकी ओर सविशेष रूपसे ध्यान मुताबिक ही आचरण रहा तब तो उसे उस गोत्रका देनेकी कृपा करें और यदि हो सके तो इस बातको कहा जावेगा अर्थात् अमुक सन्तान-परंपराके स्पष्ट करनेका जरूर कष्ट उठाएँ कि मान्य ग्रन्थोंमें आचरणके कारण उसे उस गोत्रका उदय रहेगा। ये सदोष लक्षण किस दृष्टिको लेकर लिखे गये हैं। और यदि उस जीवने अपनी कुल-परिपाटीका वीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा, ता०१६-९-३६
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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