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गोत्रलक्षणों की सदोषता
२, किरण १२]
गोत्री माना गया ? इसी तरह सम्मूर्च्छन मनुष्यों में भी सन्तानाभाव पाया जाता है, फिर उन्हें भी क्यों नीचगोत्री माना गया ? भोगभूमिज जीवोंमें भी उक्त प्रकारकी व्यवस्था नहीं पायी जाती । इस लिये उक्त उच्च-नीच गोत्र-लक्षणोंको किसी भी तरह दोषरहित नहीं कहा जा सकता । ये लक्षण श्र व्याप्ति दोष से दूषित हैं; क्योंकि अपने लक्ष्यके एक देशमें ही पाये जाते हैं ।
प्यादश्रो' शब्द पड़ा है वह लक्षणकी निर्दोषता में प्रबल बाधक हैं, क्योंकि इससे यही ध्वनित होता है कि गोत्रका मात्र इतना ही कार्य है कि वह जीवको ऊँच-नीच कुल में पैदा कराने में सहायक हो । जन्म-प्रहरणके बाद गोत्रकी क्या व्यवस्था हो, इसका कुछ पता नहीं। इस तरह यह लक्षण भी निर्दोष नहीं कहा जा सकता ।
श्रीनेमिचन्द्राचार्यने जिस गोत्र-लक्षणको जन्म
धवला टीकाकारने गोत्रकर्म ( गोत्रसामान्य ) दिया है वह अपने ही ढंगका है। यथाका लक्षण निम्न प्रकार दिया है
उच्चनीचकुलेसु उप्पादश्रो पोग्गलक्खंधो मिच्छतादिपञ्चएहि जीवसंबंधो गोदमिदि उच्चदे ।'
'संतारणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सराणा ।' अर्थात् सन्तानक्रम से - कुलपरिपाटी से - चले आये जीवके आचरण की 'गोत्र' संज्ञा हैसन्तान परंपरा के आचरणका नाम 'गोत्र' है ।
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अर्थात् - मिथ्यात्वादि कारणके द्वारा जीवके साथ सम्बन्धको प्राप्त हुए ऊँच-नीच कुल में उत्पन्न करानेवाले पुगद्लस्कंधको 'गोत्र' कहते हैं ।
यद्यपि यह लक्षण गोत्रकर्मके अन्य लक्षणोंसे बहुत कुछ संगत और गोत्रकर्मकी स्थिति कायम करने में बहुत कुछ सहायक मालूम होता है, तो भी इस लक्षणके 'कुलेसु' 'उप्पादत्रो' ये शब्द सदेह में डाल देते हैं; क्योंकि यदि 'कुल' शब्दका अर्थ यहाँ पर पितृ- कुल माना जायगा तो ऊपर लिखे समस्त दोष लक्षणको कमजोर बना देंगे और गोत्रकर्मी व्यवस्था न बन सकेगी। हाँ, यदि 'कुल' शब्दका अर्थ सजातीय- जीवसमूह - भिप्रेत हो तो गोत्रव्यवस्था बन सकती हैं; परन्तु यह क्लिष्ट कल्पना है, जो शायद लक्षणकारको स्वयं अभीष्ट न रही हो । दूसरे, इस लक्षणमें जो 'उ
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* गोत्रलक्षणकी ये पंक्तियाँ पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारकी नोटबुकले ली गई हैं और वे 'जीवद्वाय' की प्रथम चूलिका की हैं।
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यहाँ पर जीवाचरणको गोत्र बतलाया है। जैन ग्रंथों में गोत्रकर्मको पौद्गलिक स्कंध माना गया है; परन्तु आचरण या जीवाचरण को कहीं पर भी वैसा पौद्गलिकस्कंध नहीं लिखा । आचरणका अर्थ है अनुष्ठान, चालचलन, प्रवृत्ति आदि । इसलिये 'जीवायरण'का अर्थ हुआ जीवका चाल-चलन आदि । जब जीवका आचरण वह पौद्गलिक स्कन्ध नहीं जो मिध्यात्वादि कारणोंके द्वारा जीवके साथ सम्बन्धको प्राप्त होता है तब उसे 'गोत्रकर्म' - जो कि वैसा पौद्गलिक स्कन्ध होता है— कैसे माना जाय? हां, जीवके आचरणको गोत्रकर्मका कार्य माना जा सकता है; परन्तु उसको गोत्रकर्म मानना सिद्धान्तानुकूल जँचता नहीं । अन्य कर्मोंकी तरह गोत्रकर्मका सम्बन्ध या उदय चारों गतियों के जीवोंमें बतलाया गया है । संसारमें ऐसा कोई जीव नहीं है जिसके गोत्रका उदय न हो। इसलिये गोत्रका ऐसा व्यापक लक्षण होना चाहिये जो जीवमात्रके साथ