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________________ वर्ष २, किरण १२] वीर भगवान्का वैज्ञानिक धर्म ६४३ स्था और योग्यता पर ही चोद दिया है। अपने वा दूसरोंमें पापके भदकानेसे, शुभ भावों जिस प्रकार जो गुराक हम खाते हैं उससे ही वशाम्त परिणामोंकी निन्दा करने, त्यागी-पतियोंको खून मांस और खाल मादि सब ही पदार्थ और माँस महा मूर्ख भोंद और नामर्द कहने, काय भावसे नाक मादि सब ही अवयव बनते हैं, इस ही प्रकार व्रत धारण वा कोई धर्म क्रिया करनेसे पाप उत्पन रागद्वेष वा कषायके पैदा होनेसे भी जो कर्मबन्ध होता करनेवाले कर्मका संस्कार पड़ता है। हँसी मनौल है उमसे अनेकानेक परिणाम निकलते हैं। उसके फल- करनेकी पादत रखना धर्मास्मानों की और धार्मिक स्वरूप प्रागेकी तरह तरह की कपाय भी उत्पन्न होती कार्योंकी हंसी उड़ाना, दीन हीनको देखकर हँसना, है, ज्ञानमें भी मंदता भाती है, प्रसन्नचित्त वा क्लेषित मखौल करना, फवतियाँ सुनाना, फिजूल बकवाद करते रहनेका स्वभाव पड़ना, सुखी दुःखी रहना, पर्याय रहना, इससे इस ही प्रकारका संस्कार पड़ता है। खेल बदलना, उच्च पर्याय प्राप्त करना वा नीच आदि अनेक तमाशों और दिल बहलावेमें ही लगे रहनेसे ऐसे ही अवस्थायें होती हैं। इन सब भवस्थानोंको वीरभगवान्- संस्कार पड़जाते हैं। दूसरोंमें प्यार मुहम्बतको तुदवाकर ने पाठ प्रकार के मूल भेदों में बाँटकर कोंके पाठ भेद वैमनस्य पैदा कराने, पापका स्वभाव रखने भादिसे बताये हैं और जिस प्रकार चतुर वैद्य यह बता देता है भरति कर्म बंधता है । हृदयमें शोक उपजाना, शोक कि अमुक वस्तुके खाने से शरीरका अमुक पदार्थ अधिक युक्त रहना, बात बातमें रंज करना, दूसरोंको रंजमें पैदा होगा वा अमुक पदार्थ में अधिक बिगाड़ या संभाल देखकर खुश होना, इससे शोक कर्मका बंध होता है। होगी और अमुक अंकोंको अधिक पुष्टि वा अधिक पति ग्लानि करनेसे ग्लानि करनेका स्वभाव पड़ता है। बात पहुँचेगी, इस ही प्रकार वीर भगवान ने भी वैज्ञानिक बातमें भयभीत रहने, दूसरोंको भय उपजानेसे भय रीतिसे मोटरूप दिग्दर्शनके तौर पर यह बताया है कि करने के संस्कार पड़ते हैं। बहुत राग करने, मावाचार किस प्रकारके परिणामोंसे किस कर्मकी अधिक उत्पत्ति करने नहाने धोने और शृंगारका अधिक शौक होने वा वृद्धि होती है । जिसपे अपने परिणामोंकी संभालमें तथा दूसरों के दोष निकालनेसे लियों जैसा स्वभाव बहुत कुछ मदद मिलती है । दृष्टान्त जीवात्माके स्वरूप बनता है । पोदा क्रोध वस्तुभोंमें थोड़ी चि नहाने-धोने की जांच पड़ताल न कर बाप दादा से चलते आये हुये और भंगार मादिका अधिक शौकन होने, कामधर्मश्रद्धानको ही महामोहके कारण भाँख मीचकर वासना बहुत कम रखनेसे पुरुषों जैसा स्वभाव पड़ता श्रद्धान करलेना, उसके विरुव कुछ भी सुनने को तैयार है। काम भोग और व्यभिचारकी अधिकतासे हीजदेपन न होना, उल्टा बदनेको तय्यार हो जाना, किसीको का स्वभाव पड़ता है। हीजडेमें काम अमिबापा बेहद अपना श्रद्धान अपना धर्म प्रकट न करने देना, पक्षपात- होती है। से उसमें दोष लगाना, झठी बदनामी करना तथा दुःख शोक रंज फिक्र करना, रोना-पीटना-चिल्लाना, अपने पक्ष के झूठे सिद्धान्तोंकी भी प्रशंसा करना भादि दूसरोंको भी रंज क्रिक और शोकमें सबना भादिसे झूठे पमपातसे मिथ्या श्रद्धान करानेवाले मिथ्यात्व कर्म- दुखी स्वभाव रहनेका संस्कार पड़ता है। सब ही जीवों का बंध होता है। अधिक काय परिणाम रखनेसे, पर दया भाव रखना, नीच-उंच धर्मी अधर्मी, सारे खोटे,
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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