SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 438
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [वैशाख, वीर-निर्वास सं०२४६५ -सोचते जा रहे थे, शायद अभी बहुत कुछ कर दिया ! जन्म-जात-स्नेह, विद्यार्थी-जीवनकी सोचते। पर को-भाईने जो संक्षिप्त-रष्टि इनकी अभिमता! चिर-प्रेम, सब-कुछ क्षण भरमें अदृश्य !! मोर फेरी कि विचार-धाराका रुख पलट पड़ा! दोनों अचल, भकम्प वहीं, उसी वातायनके बोला एक-दूसरे से कोई कुछ नहीं! जरूरत ही न सामने, खड़े रहे ! जैसे सजीव न हों, निर्जीव हों, महसूस हुई किसीको कुछ ! जैसा सोचना ही पाषाण हों ! और भी खड़े रहते-कुछ देर ! हृदयदोनों का सब-कुछ हो!--'अरे ! भाई साहब भी की, नेत्रोंकी प्यास बुझाने, या कहें बढ़ानेके लिए ! तो...?--लेकिन यह उनकी अनुचित चेष्टा है ! अगर उसी वक्त, पीछेकी ओरसे याचक-समुदाय उन्हें कुछ गम्भीरतासे भी काम लेना चाहिए ! विरवावलि न गा उठता !प्रेम करें, बा-खुशी, शौकसे करें ! पर थोड़ा विचार 'महाराजाधिराज सिद्धार्थ-नगर-नरेश महाराज कर तो, किप्तसे करना चाहिए किससे नहीं! यो क्षेमकर, रानी विमला उनके ये युगल-चाँद-सूर्यसे ही जिधर मुह उठा, उधर ही ! यह क्या ?-थोड़ा पुत्र, तथा यह झरोखेमें स्थित रम्भा-सी सुकुमारी मुझे भी रास्ता देंगे कि नहीं, मैं क्यों हटने लगा भगिनी कमलोत्सवा चिरंजीव होउ...!' अपने पथ से ? वे ही न हट जाएँ ! मैं छोटा हूँ 'ह्य ! यह क्या ?'-दोनों ही कुमारोंके मुँहसे कि वे ? प्रेम करना वे ही तो जानते हैं, दूसरा तो एक साथ निकला ! कोई है--ही नहीं वाह ! खूब रहे ! पहिले वे चन तनी हुई भृकुटियाँ, स्वभाव पर आगई ! लें, फिर बचे-खुचेका मालिक मैं ? यह हरगिज विकारी-नेत्र भूमिकी ओर गए ! घोर पाप !... नहीं हो सकता ! वह बड़े हैं, उनका बड़प्पन, उन्नत-शलके शिखरसे गिर गए हों, अचानक उनकी गुरुता तभी तक है जब तक मैं उस बनाघात हुआ हो, या मर्म-स्थानमें असह्य-यंत्रणा रूपमें उन्हें मानता हूँ ! वरनः इस प्रेम-युद्धमें दी गई हो! आहत-व्यक्तिकी तरह दोनों कराह वे बुरी तरह हारेंगे, मैं कठोर से कठोर शक्तियाँ भी उठे। अड़ानेसे बाज न आऊँगा ! भले ही मुझे भात- अब दोनोंकी विचार-धारा एक होकर एकरकसे हाथरॅगने पड़ें! लेकिन मैं पीछे कदम न दिशाकी ओर बह रही थीहटाऊँगा। इस सुन्दरीका गठ-बन्धन होगा मेरे ही '...उँह ! कितना छल-मय है--यह संसार ? साथ ! देखेंगे कौन रोकेगा-तब ?...' मायावी...! यहीं पर ऐसे घृणित, अ-श्रवणीय दोनों ही की उप-विचार-धाराएँ अन्तमें एक- विचार उत्पन्न हो सकते हैं ! ओफ़ ! मोहकी मुख होकर वेगके साथ, दूषित-ढालू-पथकी ओर महत्ता?--स्नेहके बन्धन...? स्वार्थी-प्रेम...?बहने लगी ! मुखाकृति पर रौद्रता अधिकृत होगई! कितने दूषित-विचार उत्पन्न कर दिए तूने !...कुछ दोनों ही प्रेम-पूर्ण-हृदय कुछ विरसता-सी, कटुता- ठिकाना है ? प्राण-से भ्राहकी हत्याके लिए उद्यत सी अनुभव करने लगे! एक घातक संघर्स-सा हो गया ! किसके लिए ?--अपनी ही बहिनके छिड़ गया, जिसने भंवरंगकी कोमलताका ध्वंश लिए ! हिश्!
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy