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________________ वर्ष २, किरण ] शान-किरण [३] कुमारोंके विद्याध्ययनकी ! फिर कुमारोंकी योग्यता- फिर उपाय...१ च्या उसके लिए उसे मैदान खाली परीक्षा-सम्बन्धी ! तदुपरान्तमहाराजने राजकुमारों- कर देना पड़ेगा ?--यह सुख-संकल्प, मधुर की विवाह-चर्चामें योग दिया-क्या वे सब राज- भाकांक्षा क्या यों ही छोड़ दी जा सकेगी? और कन्याएँ आगई, जो राजकुमारोंके लिए तजवीज फिर वह इन्हें छोड़ भी सकता है क्या ? कदापि की गई हैं ? नहीं ! हरगिज नहीं ! वह भव इस रास्तेसे तिल__ 'जी, महाराज! आज्ञानुसार सारा प्रबन्ध भर भी नहीं हट सकता ! अब यह सब उसके उचित रीतिसे किया जा चुका है ! सभी राजकुमा- वशकी बात भी तो नहीं !.. भात-स्नेह..?-- रियाँ स-सन्मान ठहरा दी गई हैं...।'–सचिव ऊँह ! उस पर कहाँ तक ध्यान दिया जा सकता महोदयने अ-विलम्ब उत्तर दिया। है? वहीं तक न, जहाँ तक प्रणय-बलिदानका 'तो...? राजकुमारोंको अवसर दिया जाना अवसर न पाए ! फिर उसे भी तो सोचना भावचाहिए ?'–महाराजने कहा। श्यक है, सब मैं ही सोचूं ? यह हो कैसे सकता 'अवश्य !! प्रधान सचिव बोले । है ! वह मेरे पथका बाधक न बने, हट जाये, यही ठीक है ! परनः...?-वरनः मैं उसे जानसे मार दूंगा। और शादी मेरे ही साथ होकर रहेगी!...' प्रासादके एक भव्य झरोखे पर राजकुमारोंकी और उधरनजर टिकी ! एक अनिंद्य-सुन्दरी, लावण्यकी उधर छोटे साहिब--राजकुमार कुलभूषण-- प्रतिमा, षोड़शी-बाला बैठी, राज-पथकी ओर देख सोच रहे हैं-'साक्षात् अप्सरा तो है ही ! रही थी! अगर नारी ही माना जाय तो सौन्दर्यकी सीमा ! पद, गति-हीन ! वाणी स्तब्ध ! और हृदय-? इससे अधिक-सुन्दर कोई और हो सकती है, मुझे विक्षुब्ध ! बस, देखते-भर रह गए-वे दोनों! इसमें सन्देह है, विवाद है, मतभेद है ! मेरा देशभूषण सोचने लगे-'कितनी मनोमुग्धकर विवाह-संस्कार होगा तो इसीके साथ ! मुझे दूसरी है यह ?...कैसा रूप पाया है-इसने ?...यही अन्य राज-कन्याओंसे कोई प्रयोजन, कोई वास्ता मेरे योग्य है ! मेरा पाणि-ग्रहण इसीके साथ नहीं ! मेरा मकसद--मेरा विचार-अनेक शादी होना चाहिए !...हजार शादियां भी कुछ नहीं, करनेका नहीं, मैं एक शादी करना चाहता हूँ ! अगर यह मेरी अपनी न हुई तो ?... लेकिन मनकी ! तबियतकी ! और ऐसी, जो सहसा समीप खड़े हुए कुलभूषणकी ओर हजारों में एक हो! इसीलिए तो हमें यह मौकानजर जा पड़ी ! देखा तो वह भी एकटक! कीलित- यह अवसर--दिया गया है कि हम इच्छितदृष्टि !...भ्रमित-विचारोंको ठेस लगी! मन कुछ पत्नी-निर्वाचन कर सकें ! फिर भी, इतने अधिदूसरी तरहका हो उठा!-'अगर कुलभूषण इस कार पर भी, इतनी स्वतंत्रता पर भी हम निष्ट प्रेमके मैदानमें सामने आए तो... ?-तो." रहें तो यह अपनी मूर्खता होगी बड़ी-मूर्खता!...'
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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