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________________ ६८६ अनेकान्त | अाश्विन, वीर-निर्वाण सं०२४६५ में कालतंत्राधिकारको अन्तिम गाथाका "जसइत्ति- रामकीर्तिनामके एक दिगम्बर मुनि, जो जयकीर्ति मुगिसरे एत्थ"पाठ प्रशुद्ध जान पड़ता है वह जसइत्ति- मुनिके शिष्य हुए हैं, विक्रम संवत १२०७ में मौजूद थे। मणीसरेोत्थ होना चाहिये और तब उस गाथाका इस संवत्में उन्होंने एक प्रशस्ति लिखी है जो चालुक्ययह अर्थ हो सकेगा कि 'रावणदिकथित 'बालतंत्र'को राजा कुमारपालके 'चित्तौड़गढ़-शिलालेख' के नामसे जानकर यश-कीर्ति मुनिने उसे इस ग्रन्थमें संदिप्तरूपसे नामाक्ति है और एपिप्रेफ्रिया इंडिकाकी दूसरी जिल्द दिया है। और प्रारम्भिक १३वी गाथामें पड़े हुए (E. I. Vol II.) में प्रकाशित हुई है; जैसा कि उक्त 'रणाऊ' (ज्ञात्वा) पदका सम्बन्ध 'कलिसरुवं पद शिलालेखकी निन्न २८वीं पंक्तिसे प्रकट हैके साथ लगा लिया जायगा, और तब उस गाथाका "श्रीज [य] कीर्तिशिष्येण दिगंव (ब) रगणशिना । यह अर्थ हो जायगा कि 'कलिकालके स्वरूपको जानकर प्रशस्तिरीहशी चक्रे........ श्री रामकीर्तिना॥ यशःकीर्ति मुनिने यह ग्रन्थ कहा है, जिससे ग्याधि संवत् १२०७ सूत्रधा...... प्रसित भन्यजीव मिथ्यात्वमें न पड़ें।' यदि ये रामकीर्ति ही यशःकीर्ति मुनिके दादागुरु थे तो . ये यशःकीर्तिमुनि विमलकीर्तिके शिष्य और कहना होगा कि जगत्सुन्दरी-प्रयोगमालाके कर्ता यश:रामकीर्तिके प्रशिष्य थे, और वे बागदसंघमें हुए हैं; जैसा कीर्तिमुनि विक्रमकी १३ वीं शताब्दीके उत्तरार्द्ध में कि ग्रंथकी निम्न गाथाभोंसे प्रकट है: होगये हैं और तब यह समझना चाहिये कि इस ग्रंथ आसि पुरा विच्छिएणे वायडसंघे ससंकासो (भो)। को बने हुए आज ७०० वर्षके करीब हो चुके हैं। मुणिरामइत्तिधीरो गिरिवणाईसुबगंभीरो ॥१८॥ इस ग्रंथमें कितनी ही विचित्र बातोंका उल्लेख है संजातउ(?)तस्स सीसोविबुहोसिरिविमलइतिविक्खाश्र और बहुतसी बातें प्रकट करने तथा जाननेके योम्य हैं, विमलपरतिखडिया धवलिया धरणीयगयणाययले॥ जिन पर फिर किसी अवकाशके समय पर प्रकाश डाला जा सकेगा। ३८वें अधिकारका नाम जो पं० दीपचंदजी तप्पायपो भिमगो सीसो संसारगमणभयभीओ। पांड्याको स्पष्ट नहीं हुमा था वह इस ग्रंथपरसे 'प्रकीर्णउप्पएणो पयसहिओ हिय-पिय-मिय-महुरभासिल्लो।।२० काधिकार, जान पड़ता है। मंतागमाहिदत्थो चरियपुराणसत्थपरियारो। हाँ, एक बात और भी प्रकट करने की है और दिययंचंदिदुरउ (?) वयविहिकुसलो जियाणंगो॥२१ वह यह है कि इस ग्रंथके अन्तिम भागमें भी "कवियगुरुयायमले" नामकी गाथा नहीं है और न गयणुवसुद्धहियो अहिवणमेहुनपीणियजमोहो।। पं० हरिषेणके नामोल्लेख वाला और उसके कर्तृत्वको पंचाणुव्वसुक्कसंगो मयमत्तकरिव्वमत्तगई ॥ २२॥ सूचित करने वाला वह गद्य-वाक्य ही है, और इससे (इसके बाद दो पथ संस्कृतके हैं जो असम्बद्ध और ऐसा मालूम होता है कि पूनाका 'जगत्सुन्दरीप्रपिस जान पड़ते हैं) योगमाला' अधिकार और यश कीर्तिका यह समूचा ग्रंथ मललित्तुंगवि विमलो णिज्जियभयमई विभवभीओ। दोनों एक दूसरेसे भिन्न हैं । विशेषनिर्णय पूनाकी प्रतिगणगच्छविसग्गंथो गिम्महियमउविदयसहिो ॥२५ के साथ इस प्रतिका मिलान करनेसे ही हो सकता है। माशा है कोई विद्वान् महानुभाव इसके लिए जरूर जसइत्तिणामपयडो पयपयरुहजुअलपडियभन्वयणो । प्रयन करेंगे। सत्थमिणंजणदुलहं तेण हहिय (?)तमुद्धरियं ।। २६ वीरसेवामन्दिर, सरसावा सा० २०-६-३६
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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