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________________ बीमारी और आभार प्रथम वर्ष ४) ० मूल्यमें टाइटिल महित ७२० पृष्ठ दिए गए थे, इस द्वितीय वर्ष में २।।) क० मैं ११ अगस्तसे बीमार पड़गया था। बीमारी.. में ही टाइटिल सहित ७३८ पष्ठ दिए गए हैं। फिर के अधिक बढ़नेपर पं० परमानन्दजी शास्त्रीने भी स्थानाभावके कारण कितने ही उपयोगी लेख उसकी सूचना गत किरणमे अनेकान्तके पाठकोंको प्रकाशित नहीं किए जा सके। अतः कुछ हितैषी दी थी। सूचनाको पाकर जिन सजनोंने मेरे दु., । बन्धुओंके आग्रहसे २॥) रु. के स्थान में अनेकान्तखमें अपनी हमदर्दी और महानभूति प्रकट की है । ९ का वार्षिक मूल्य इम तृतीय वर्षसे ३) रु० किया और मेरे शीघ्र नीरोग होनेके लिये शुभकामनाए जा रहा है और पष्ठ संख्या ७३८ से बढ़ाकर ८५० तथा भावनाएँ की है उन सबका मैं हृदयसे बहुत देनेकी अभिलाषा है। यद्यपि यद्धके कारण काराज्ञ ही आभारी हैं। मेरा संकट यद्यपि टलगया जान वगैरह की तेजीने अन्य पत्र संचालकोंको मूल्य पड़ता है, परन्तु कमजोरी अभी बहुत ज्यादा है बढ़ाने और पृष्ठ घटानेके लिए विवशकर दिया है। और इमका तथा बीमारीक इतना लम्बा खिंचने पर, अनेकान्त में यह परिवर्तन नहीं किया जा रहा का एक कारण यह भी है कि मुझे रोगशय्यापर है पड़े पड़े भी अनेकान्तका सम्पादनादि विषयक आठ आना मूल्य बढ़ा देने पर १०० पट्र कितना कार्य करना पड़ा है-सम्पादन कायेमें अधिक और चार प्राना पोष्टेजके यानी ३१) रु. किसीका भी सहयोग प्राप्त होनेके कारण मैं उसकी मनिबार्डरमे भेज देने पर दो उपहारी ग्रंथ तथा चिन्तासे सर्वथा मुक्त नहीं रह सका हूँ। आशा है ८० पृष्ट अनेकान्तकं मिलेंगे। आशा है कृपाल श्री वीरप्रभु और भगवान समन्तभद्रके पुण्य-स्मरणां ग्राहकांको यह योजना पसन्द आएगी। और वह और पाठकोंकी शुभ भावनाओंके बलपर यह शीघ्र ही मनिश्राडरसे ३१) रु० भेजकर अनेकान्तकं कमजोरी भी शीघ्र दूर हो जायगी और मैं कुछ ग्राहक होते हुए उपहार भी प्राप्त करेंगे। दिन बाद ही अपना कार्य पर्ववत् करनेमें ममथ -विनीत हो सकूँगा। व्ववस्थापक जुगलकिशोर मुख्तार 'अनेकान्त' का उपहार __ 'अनेकान्त'के उपहारमें दो ग्रन्थोंकी तजवीज अगले वर्षकी सूचना की गई है और वे दोनों ही तय्यार हैं--एक कृपालु लेखकों, कवियों, ग्राहकों, पाठकों और ममाधितंत्र मटीक, दृमरा जैनममाज दर्पण । अन्य हितैषी बन्धनोंकी असीम अनुकम्पाके बल- पहला ग्रन्थ श्रीपूज्यपाद आचार्यकृत मूल मंस्कृत पर अनेकातन्का यह द्वितीय वर्ष समाप्त हो रहा है. पयों, प्रभाचन्द्राचार्यकृत मंस्कृतटीका नया अपनी सामर्थ्यके अनुसार अनेकान्तको यथायोग्य पं० परमानन्द शास्त्रीकृत हिन्दी टीका और बनानेका प्रयत्न किया गया है। इसकी सेवामें जो मुनार श्री जगलकिशोरजीकी महत्वपर्ण प्रस्तावना भी समय और पैसा लगता है उसे हम अपने के साथ वीर-सेवा-मन्दिर ग्रन्थमालासं प्रकट हुआ जीवनका अमूलय और सदुपयोगी भाग समझते है-मम्पादन भी इमका मुख्तार माहिबने ही किया है। यह ग्रन्थ बड़े आकारके १४० पृष्टमें __ यद्यपि अनेकान्तको बहुत कुछ उन्नत बनाने में - उत्तम कागज पर छपा है । दूमरा ग्रन्थ २०४३० हमारी सभी प्रकारकी शक्तियाँ सीमित और तुच्छ साइजके १६ पेजी आकारमें छपा है, जिसकी पृष्ट : हैं फिर भी हमारी भावना यही है कि अनेकान्त संख्या १४४ है । इस ग्रंथमें १०८ विषयों पर अनेक का व्यापक प्रचार हो, 'अनेकान्त' जिनेन्द्रभगवान- विद्वानोंकी अच्छी अच्छी कविताओंका संग्रह है का घर घरमें सन्देश-वाहक हो । और इसका सम्पादन पं० कमलकुमारजी जैन
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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