________________
२६८
अनेकान्त
[ माघ, वीर-निर्वाण सं० २४६५
है और काठके अन्दर पानी घुस जाता है; इसलिए ही लगे रहना अनोखी बात कैसे हो सकती है ? धोने मांजनेसे शुद्ध नहीं होसकता ? उस कमण्डलुका मथुराप्रसाद-अच्छा तो क्या संसारी मनुष्योंके जल, जो गुदा साफ करनेके वास्ते टट्टीमें लेजाया जाता वास्ते भी स्नानादिके द्वारा शरीरको पवित्र रखना धम है, कुल्ली करने और हाथ मुँह धोने आदिके काम में नहीं है ? कैसे आसकता होगा?
ज्योतिप्रसाद-- साधु हो वा गृहस्थी धर्मतो सबके जोतिप्रसाद-कमण्डलु काठका हो वा धातुका,
वास्ते एक ही है और वह एक मात्र अपनी आत्माको मुनि महाराज उसको धोते व मांजते नहीं हैं, न वह
रागद्वेषादि के मैलसे शुद्ध करना ही है, फ़क सिर्फ इतना गुदा धोकर अपने हाथको ही मट्टी मलकर साफ करते।
है कि साधु तो बिल्कुल ही संमारके मोहसे विरक्त होकर हैं, उनके पास तो कोई दूसरा शुद्ध पानी ही नहीं होता पूर्णरूपसे आत्म-शुद्धि में लग जाते हैं और ग्रहस्थी संसार है, जिससे वे कमण्डल वा हाथको शुद्ध करलें, मुँह भी के मोह में भी फँसता है और कुछ धर्म साधन भी करता वह स्वयं कभी नहीं धोते हैं, न दांत साफ करते हैं, है। इसीसे पद्मनन्दिपंचविंशतिका में कहा है-- न कुल्ली करते हैं, न कभी नहाते और न कभी शरीर
सम्पूर्ण देशभेदभ्यां स ब धर्मो द्विधा भवेत् । को धोते व पोंछते हैं । उनको तो शरीरमे कुछ भी मोह
श्राद्यभेदे च निग्र द्वितीये गृहिणौ मताः ।। नहीं होता है। इसही कारण शरीरकी सफ़ाई की तरफ उनका कुछ भी ध्यान नहीं जाता है। उनका ध्यान तो
हो अर्थात् –पूर्णरूप और अंशरूप भेदसे धर्म-साधन एकमात्र अपनी आत्माको शुद्ध करनेकी तरफ़ लगा
दो प्रकार है, पूर्ण साधन करनेवाला नग्नसाधु और रहता है--वे सदा मोह-माया और ममताको दरकर अंशरूप साधन करनेवाला गृहस्थी कहलाता है। जैन
आत्माको अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूपमें लेजानेकी ही धर्ममें धर्मात्मा गृहस्थ के ग्यारह दर्जे कायम किये गये हैं। कोशिश करते रहते हैं।
पहला दर्जा श्रद्धानीका है, जिसको जैनधर्मके सिद्धान्तों ___ मथुराप्रसाद- यह तो आपने बड़ी अनोखी बात का श्रद्धान तो होगया है परन्तु अभी त्याग कुछ भी नहीं। सुनाई । हिन्दूधर्ममें तो शरीर शुद्धिको ही सबसे मुख्य दूसरा दर्जा अणुव्रतीका है, जो हिंसा झूठ चोरी आदि माना है, और आप उसको बिल्कुलही उड़ाये देते हैं। पांचों पापोंका अंशरूप त्याग करता है और अपने इस ___ज्योतिप्रसाद ---प्रत्येक जीव अपने वास्तविक रूप ल्यागको बढ़ाने के वास्ते तीन प्रकारके गुणवतों और से सच्चिदानन्द स्वरूप है; परन्तु राग-द्वेष-मोहके जालमें चार प्रकार के शिक्षाव्रतोंका पालन करता है । शिक्षाव्रतोंफँसा हुआ संसारमें रुलता फिरता है। जो जीव इस में उसका एक व्रत यह भी होता है कि महिनेमें चार गग-द्वेष मोह-रूप- मैलको धोकर शुद्ध-बुद्ध होजाता है, दिन प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको वह उपवास वही अपने असली सच्चिदानन्द स्वरूप को पालेता है। करता है, अर्थात् गृहस्थका सब प्रारम्भ त्याग कर, एक शरीरके मैलको धोने पोंछनेसे आत्माका मैल नहीं मात्र धर्म सेवन में ही लग जाता है खाना, पीना, धुलता है, तब जैन मुनियोंका अपने शरीरकी शुद्धिकी नहाना और शरीरका सँवारना आदि कुछ भी सांसारिक तरफ कुछ भी ध्यान न देकर एक मात्र आत्मशुद्धि में कार्य वह नहीं करता है।