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________________ २४ अनेकान्त स्वामी अपने सेवक से कहता है- 'एक जानवर लाओ ।' सेवक गाय, भैंस या घोड़ा कुछ भी ले आता है और स्वामी इससे परितुष्ट होजाता है । फिर स्वामी कहता है- 'गाय लाभो ।' सेवक यदि घोड़ा लेता है तो स्वामीको सन्तोष नहीं होता । क्यों ? इसीलिये कि पहले आदेश में सामान्यका निर्देश था और उस निर्देशके अनुसार प्रत्येक वर एक ही कोटि में था । दूसरे आदेश में विशेका निर्देश किया गया है और उसके अनुसार गाय अन्य पशुओं से भिन्न कोटिमें आगई है। इस प्रकार जान पड़ता है कि सामान्यकी अपेक्षा प्रत्येक पदार्थ एक है और विशेषकी अपेक्षा सब जुदा-जुदा हैं। जब ऐसा है तो सामान्य रूप से (सत्ताकी अपेक्षा) समस्त पदार्थोंको एक रूप कहा जा सकता है और इस प्रकार वेदान्तका अद्वैतवाद तर्कसंगत सिद्ध होजाता है। किन्तु जब हमारा लक्ष्य विशेष होता है तो प्रत्येक पदार्थ हमें एक दूसरे से भिन्न नजर आता है अतः विशेषकी अपेक्षा द्वैतवाद संगत है। इस प्रकार अनेकान्तवाद द्वैत और अद्वैतको समस्याका समाधान करता है । [कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६५ पर्याय को मुख्यता प्रदान करता है वह पर्यायार्थिकनय कहलाता है । जैसे संगीत कलाका आधार नाद है उसी प्रकार समन्वय कला या अनेकान्तवादका आधार नय है। नयों का यहाँ विस्तृत विवेचन करना संभव नहीं है। नयवाद बड़ा विस्तृत है । कहा है- “जावइया वयणपहा तावइया चेव दुति नयवाया।” अर्थात् वचनके जितने मार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं । ऊपर जिन अपेक्षाओं, दृष्टिकोणों या अभिप्रायोंका उल्लेख किया गया है वेही जैन-दर्शनसम्मत नय हैं । नय, बोधके वे अंश हैं जिनके द्वारा समूची वस्तु से किसी एक विवक्षित गुरणको ग्रहण किया जाता है और इतर गुणोंके प्रति उपेक्षा भाव धारण किया जाता है। इन नयोंके द्वारा ही विरोधी धर्मोंका ठीक-ठीक समन्वय किया जाता है। जो दृष्टिकोण द्रव्यको मुख्य मानता है उसे द्रव्यार्थिक-नय कहते हैं और जो अभिप्राय अनेकान्त - सिद्धान्त का दूसरा आधार सप्तभंगीवाद है । सप्तभंगीवाद, जैसा कि पहले कहा गया है, प्रत्येक धर्म का विश्लेषण करता रहता है और उससे यह मालूम होता है कि कोई भी धर्म वस्तु में किस प्रकार रहता है। एक ही वस्तु के अनन्त-धर्मो में से किसी एक धर्मके विषय में विरोध-रहित सात प्रकारके वचन प्रयोगको सप्तभंगी कहते हैं । उदाहरणार्थ अस्तित्व-धर्म को लीजिए | अस्तित्व धर्मके विषयमें सात भंग इस प्रकार बनते हैं— (१) स्यादस्ति घटः - श्रर्थात् घटमें घटविषयक श्रस्ति पाया जाता है । घटमें घट संबंधी अस्तित्व न माना जाय वह खरविषाणकी भांति श्रवस्तुनाचीज़ ठहरेगा । (२) स्यान्नास्ति घटः - इसका अर्थ यह है कि घटमें, घटातिरिक्त अन्य पट श्रादिमें पाया जाने वाला अस्तित्व नहीं पाया जाता। यदि पटादि विषयक अस्तित्वका निषेध न किया जाय तो घट, पट आदि भी 'जायगा। इस प्रकार एक ही वस्तुमें अन्य समस्त वस्तुओं की सत्ता होनेसे वस्तुका स्वरूप स्थिर न हो सकेगा । अतएव
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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