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________________ गोत्रकर्म-सम्बन्धी विचार (ले०-७० शीतलप्रसादजी) [अनेकान्त'की सुन्दर समालोचनाके साथ यह लेख 'जैनमित्र के पिछले पौष शुक्ल १ के अङ्कमें मुद्रित हुआ है, और वहां इसे 'अनेकान्त में भी प्रकट कर देनेकी मुझे प्रेरणा की गई है। जैनमित्रका यह लेख अपनेको सुसम्पादनसे विहीन और अवतरणों तथा छापे आदिकी अनेक त्रुटियों- अशुद्धियोंको लिये हुए जान पड़ा, और इसलिये मुझे उसको जैनमित्र परसे ज्योंका त्यों उद्धृत करने में संकोच होता था। बादको ब्रह्मचारीजीने उसकी एक अलग मुद्रित कापी भी, मात्र दो तीन अशुद्धियोंको ठीक कर के, मेरे पाम भेजी और उसे अनेकान्तमें छाप देनेका अनुरोध किया। ऐमी हालत में भाषा आदिका कोई सुधार-संस्कार किये बिना ही यह लेख ब्रह्मचारीजीकी उक्त कापीके अनुसार ज्योंका त्यों प्रकट किया जाता है। साथमें कुछ स्पष्टीकरणादि के लिये एक सम्पादकीय नोट भी लगा दिया है, जिसे पाठक लेखके अन्तमें देखने की कृपा करेंगे। --सम्पादक ] गोत्रकर्म पर एक लेख बाबू सूरजभानजीका अने- नरकगति, गत्यानुपूर्वी, नर कायु. तिर्यञ्चआयु, देवायु, "कान्त पृष्ठ ३३ से ४७ तक है व पं० जुलगकिशोर- वैक्रियिक शरीर, व अङ्गोपांग, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी जी लि. पृ० १२९ से १३६ तक है। दोनों लेख विद्वानों इन २० को निकाल देना चाहिये । इन १०२ में नीच को गौर से पढ़ने योग्य हैं। गोत्र उच्चगोत्र दोनों गर्भित हैं। बाबू सूरजभानजी ने यह सिद्ध किया है कि देवोम गाथा ३०० में मानवोंमें नीचगोत्रकी उदय जैसे उच्चगोत्रका ही उदय है वैसा मनुष्योंमें भी होता व्युच्छित्ति पंचम देशविरति गुणस्थानमें है- अर्थात् नीच है व उसके प्रमाण में कर्मकाण्ड गोमट्टसार गाथा २८५ गोत्रका उदय पांचवें गुणस्थान तक मनुष्यों के भीतर लिखी है। उस गाथाकी संस्कृत टीकामें वाक्य हैं- होसकता है, आगे नहीं । कर्मकाण्ड गाथा २०३-३ से उच्चैर्गोत्रस्योदयो मनुष्ये सर्वदेवभेदके ।--भाषामें पं० विदित होगा कि भोगभूमिके मानवोंके नीचगोत्रका टोडरमलजीने अर्थ दिया है "उच्चगोत्रका उदय उदय नहीं होता। उनके ७८ का उदय होता है । भोगकिसी मनुष्यों व सर्व देवों में है। अर्थात् सर्व मनुष्यों भूमिके मानवोंके उच्चगोत्रका ही उदय होता है। में नहीं । आगे कर्मकाण्डकी गाथा २९२ प्रगट वास्तवमें मनुष्योंके दोनों गोत्रोंका उदय हैं व करती है कि मनुष्योंमें उदय योग्य प्रकृतियां १०२ हैं। एकही वंशमें आचरण के कारण गोत्रका उदय बदल १२२ में से स्थावर, सूक्ष्म, तिर्यचगति व गत्यानुपूर्वी, जाता है । आर्यखण्ड में जब कर्मभूमि हुई तब मानवों प्रातप, उद्योत, एकेंद्रिय से चार इन्द्रिय जाति, साधारण में नीच-ऊच का भेद होगया । उस समय जो लोक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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