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________________ २९४ अनेकान्त ण, वीर- निर्वाण.सं.२४६५ x ... मैं वासनाओंका गुलाम, विषय-शैल्यके शिखर वियोग दोनों पास-पास रहते हैं। जो जन्मता है, वह पर सो रहा था --एकदम तन्मय, अचेत ! अगर चेत मरता अवश्य है। फिर किसका मोह ?---कैसा प्रेम.... न हा होता, तो...?-. निश्चय था स्वाभाविक यही तोसंसार है ! अस्थिर-संसार !! त्याज्य सँसार!!!...' था कि रसातलमें पतनके महान-दुखको प्राप्त होता! क्षण-भर के लिये बज्रबाहका विरक्त कण्ठ रुका। और तब...............!" उदय सुन्दर रोता रहा ! वह बोले-...'मत रोश्रो ! रोना 'क्या मुनी होने के विचार में हैं- श्राप ?' घूमकर । उपाय नहीं, कायरता है ! रोना आता है। इसलिए कुमारने दृष्टि फेरी तो ... उदय सुन्दर विचारोंका रात हो ! यह नहीं सोचते-रोनेका उत्पाद कहांसे क्षेत्र सीमित ! बज्रबाहने गम्भीरता पूर्वक मस्करा हुआ ? उसे ही नाश न कर दो!...यह तुम्हारी हँसी भर दिया। नहीं थी, मेरे लिए उपकार था। आदर्श-हँसी थी! मुझे मुखकी ओर अग्रसर करना था। वह हुश्रा, उदयसुन्दर हँसता रहा! जैसे उसकी हँसी में...... लोकलाजकी परवाह न करने वाले कामी, तपोधन मेरा जीवन सफलतासे पूर्ण हुआ। योगीश को देख रहे हैं, खूब-यह भाव हों! - और वह दिगम्बर-वेष रख, तपोनिधि महाराज साले साहिबने व्यंग तो तीखा किया, शायद अपने । गुणसागरसे स्वर्गापवर्ग-दायिनी भगवती-दीक्षाकी याचना करने लगे। दिलकी बुझाई। लेकिन बहिनोई साहबको वह चुभा भी नहीं ! वह उसी तरह हँसते हए, बोले.... यात ती उदयमुन्दरका रुदन सीमा लाङ्कने लगा ! राजठीक पकडी! यही तो मेरे मन में थी! लेकिन अब यह कुमारी मनोदया भी था पहँची ! तो कहो, तुम्हारे मन में क्या है ?.... X मेरे मन में ..?- अगर तुम भुनी होओगे, तो कुछ समय बादमुझे क्या ?-मैं भी हो जाऊँगा ? मैं तुम-सा थोड़े हूँ ! राजकुमार बज्रबाहु और उदयसन्दर दोनो वंदतुम अपनी कहो!' .... नीय-साधुके रूप में विराजमान थे ! वही विश्वपूज्य दिग -उदयसुन्दरने फिर भी अपनी ठिठोली न छोड़ी! म्बरवेश ! शान्तिमय मुखाकृति !! और वासना-शून्य उसे था विश्वास, ऐसा सरस-जीवन बिताने वालेके हृदय !!! यह उदगार -महज़ हँसी हैं ! और हँसीमें जो कहा पति और भाता दोनोंक प्रेमसे वञ्चिता-मनोदयाजाय-सब ग़लत ! फिर वह पीछे हटे तो क्यों ? ने अपना कर्तव्य सोचा !...एक आदर्श नारीका ध्येय 'तो बस, यह तो अब यों ही रही! विरक्त-जीवन विचारा!!महान्-वस्तु है ! आत्मिक-सुखका साधन है ! और विषया- और वह .....?भिलाषा है--नरकका रास्ता!'--वीर बज्रबाहुने वस्त्रा- मात्र श्वेत-साड़ीसे सशोभित आर्यिका के रूप में थी! भूषण परित्याग करते हुए, विवेक पूर्ण, हद-स्वर में बसन्तकी मधुरिम बयार अब भी बह रही थी ! कोकिलोंकी कूकसे उद्यान अब भी मुखरित हो रहा था ! उदयसुन्दर आश्चर्यचकित ! फलों-पल्लवोंकी छटा अब भी वैसी ही थी ! यह हुमा क्या ?--यह हँसी थी या यथार्थ वस्तु ! लेकिन............. अब...? लेकिन अब किसीका ध्यान उस पर न था ! कोई रो पड़ा वह ! जैसे हँसीका साथी भा पहुंचा हो! उन्हें निरख कर प्रसन्न होने वाला न था! जैसे उन या हो हँसीका प्रायश्चित्त !!! सयका भाकर्षण, सारी शोभा नष्ट होगई हो! • 'उदयसुन्दर ! रोते हो?-किसलिए...? संयोग- एक महान-परिवर्तन !...... कहा!
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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