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अनेकान्त
[ज्येष्ट, वीर-निर्वाण सं०२४६५
देवदत्त आदि मनुष्यों में ब्राह्मण जातिका प्रत्यक्ष बोध नहीं होता अगर जातिका प्रत्यक्षबोध होसकता तो यह ब्राह्मण है या वैश्य, इस प्रकारका सन्देह ही क्यों होता और सन्दे- मिटा जो नाम तो दौलतकी जुस्तजू क्या है ? हको दूर करने के लिये गोत्र श्रादिके कहने की जरूरत ही निसार हो न वतन पर तो आबरू क्या है ? क्या होती ? परन्तु गाय और मनुष्य के जानने के लिये तो लगादे आग न दिलमें तो आरज़ क्या है ? गोत्र श्रादिके कहने की कोई भी ज़रूरत नहीं होती है।' न जोश खाए जो गैरतसे वो लहू क्या है ?
'कर्मसे ही ब्राह्मणादि व्यवहार मानना चाहिये ।' मर्द कौमों को सबक य ही सिखा देते हैं।
'प्राचरगा यादिकी समानतासे ही ब्राह्मण, क्षत्रिय दिलमें जो ठानते हैं करके दिखा देते हैं । आदिको व्यवस्था है।"
जिन्दगी यू तो फ़क़त बाजिये तिफलाना है । अधिक जानने के लिये प्रमेयकमलमार्तण्डको ही मर्द वो है, जो किसी रंगमें दीवाना है। देखना चाहिये । यहाँ विस्तार भयसे उसके मूल वाक्योको छोड़ा जाता है।
हम ऐसी कुल किताबें काबिले जप्ती समझते हैं । अन्तमें पाठकोंसे मेरी यही प्रार्थना है कि यदि वे कि जिनको पढ़के लड़के बापको खप्ती समझते हैं । मचा धर्म ग्रहण कर श्रात्म-कल्याण करना चाहते हैं, आज जो कुममें मसरूफ़ है सरगोशीमें । मिथ्यात्वको छोड़ सम्यक् श्रद्धानी बननेकी अभिलाया होश आएगा उन्हें मौतकी बेहोशीमें ॥ रखते हैं तो वे श्रीश्राचार्योंके वाक्यों, उनकी दलीलों वाअसर कुब्बत अमल की सौ में हो या दसमें हो।
और युक्तियों पर ध्यान देकर सचाईको ग्रहण करें, स- सबसे पहली शर्त ये है इत्तफ़ाक़ आपसमें हो ॥ चाईके मुकाबिलेमें प्रचलित रूढ़ियोंको छोड़नेमें ज़रा भी हंसकं दुनियाँमें मरा कोई, कोई रोके मरा । हिचकिचाहट न करें । दुनिया चाहे जो मानती हो, तुम जिन्दगी पाई मगर उसने जो कुछ हो के मरा ।। इसकी कुछ भी परवाह मत करो, किन्तु इस ही बातकी अगर चाहो निकालो ऐब तुम अच्छेसे अच्छे में । तलाश करो कि कल्याणका रास्ता बताने वाले श्रीश्रा- जो टू डोगे तो 'अकबर में भी पाओगे हुनर कोई ॥ चार्य महाराज क्या कहते हैं-श्रीवीर प्रभुके बताये हुए. धर्मका असली स्वरूप वे क्या प्रतिपादन करते हैं बस बुरा दुश्मनके कहनेसे, बुरा में किस तरह मान । जब तुमको यह मालूम हो जाय तो निर्भय होकर उस ही मुझे अच्छा कहे सारा ज़माना हो नहीं सकता। को स्वीकार करो। दुनिया भले ही तुम्हें तुम्हारी सचाई कितने मुफ़लिस होगये कितने तवंगर होगये । पर बुरा भला कहती हो और दुख देती हो तो भी तुम खाकमें जब मिलगये दोनों बराबर होगये । मत घबरानो हिम्मत बाँधकर सचाईका ही गीत गाश्रो,
-अज्ञात उस ही का डंका बजाश्री, वीरप्रभु के सच्चे वीरअनुयायी बशरने खाक पाया लाल पाया या गुहर पाया।
बनकर दिखाओ और इस तरह अपनी आत्माका सञ्ची मिज़ाज अच्छा अगर पाया तो सब कुछ उसने भर पाया , उत्कर्ष सिद्ध करो।