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________________ वर्ष २, किरण ५ ] चौद्ध तथा जैनधर्म पर एक सरसरी नज़र अरुचिकर बातें हमारे धर्मके संबन्धमें लिखदीं तो क्या धर्मका भातृत्व उन छोटे छोटे जीवों तक फैला हुआ है, आश्चर्य ? और इन्हीं सब झमेलोंमें पड़कर यदि पाश्चत्य जिनके अस्तित्वको भी नैतिक दृष्टिसे अन्य समाज मानने विद्वानोंने जैन तथा बौद्ध-धर्मका वास्तविक महत्व. को तैयार नहीं। नहीं समझा तो हम सब भारतवासियों ही के दुर्भाग्य से ! कोई आश्चर्यकी बात नहीं यदि जैन-धर्मसे दीक्षित जिस तरहसे बौद्ध-धर्म महायान तथा हीनयान पंथों- नर श्रेष्ठोंने सदियों तक राज्य-संचालनकी बागडोर अपने में विभक्त होगया, उसी तरहमे उज्जैन के दुष्कालने भद्र- हाथोंमें थामी और सफलता पूर्वक राज्य-संचालन भी बाहु श्रुतकेवलीके समयमें जैन-धर्मको भी दो बड़ी किया, किन्तु संकल्पी हिंसाको अपने कार्यों में स्थान शाखाओंमें विभाजितकर दिया है .. एक दिगम्बर दूसरा नहीं दिया । भलेही विरोधी हिंसाके सबन्धमें राज्यकारण श्वेताम्बर, जो आपत् धर्मके रूप में वस्त्र धारण करने लगा। जहाँ बाध्य करता था, वहाँ आगा पीछा भी नहीं किया। जिस शांति तथा प्राणीमात्रकी एकताका पाठ पढ़ानेको आज बौद्ध-धर्म भले ही प्रचारका धर्म है, किन्तु जैनमहावीरने अन्तिम तीर्थकर के रूपमें जन्म लिया था, उमी धर्मने तो इस महान अंगको त्यागकर जैन-धर्मको पंगु सिद्धान्तकी अवहेलना कर बड़ी कटुताके साथ दोनों फिरके तथा एक दृष्टि से सीमित बनादिया है। बढ़ रहे हैं और लाखों रुपयोंका अपव्यय भी कर रहे बड़े आश्चर्यकी बात है कि जनता की भाषावाला हैं । देखें भगवान् इन्हें कर मुबुद्धि देता है । मोटा तथा जनताकी भावनाको प्रमुख रखनेवाला महान-धर्म अन्तर इनदो वर्गोमें इतना ही है कि श्वेताम्बर तीर्थ. एकतो भारत के बाहर ही होगया, व दूसरा भी अधिकांश करोंकी मूर्तियोंको वस्त्राभूपण पहिनाते हैं, जबकि दिग- जनताका धर्म न होसका ! बौद्ध धर्मकी आकर्षक आधार म्बर प्रतिमाओंको उनके असली रूपमें नग्न रग्बते हैं। शिला चारित्रपर थी, परन्तु जिस समय शंकराचार्य व दूसरे श्वेताम्बगम्नाय स्त्रीको मोक्ष-गामिनी भी मानता उनके पूर्ववती कुमारिलभट्ट तथा परवर्ती भाचार्योंका है दिगम्बर नहीं ! इसमें सन्देह नहीं कि जैनधर्मने स्त्री प्रहार हुआ, उस समय चारित्रकी आधारशिला भिक्ष. जातिकी दशा बहुत सुधारी है और उनके लिए. श्राविका तथा भिक्षणियों दोनों में भ्रष्टाचार में परिवर्तित हो तथा आर्यिकाके रूप में संघ सङ्गठित कर उन्हें धर्म-पालनः चुकी थी । जितनी मोहक मुखता बौद्ध-धर्मके "धुदका अच्छा अवसर दिया है। धर्म" व "संघ" में थी, उतनी जैन-धर्मके सम्यग्दर्शन हिंसा रोकनेको मुखपर कपड़ा बांधने वाले तथा ज्ञान-चारित्रमें न थी । इसलिये बौद्ध-धर्म अधिक प्रचादन्तधावन न करने वाले दंदिया जैन-समाज में बहुत कम रित होते हुए भी स्थायी न रह सका । भगवान् बुद्धके हैं। उनके समाजको खराब व गलीज समझ बैठना अनिचिश्तबादने यद्यपि जनताको बौद्धिक दासतामें नहीं हमारी बड़ी गलती है। जैनधर्मके विश्वभातृत्व तथा रक्खा, किन्तु फिरभी सैद्धान्तिक निश्चयकी कमी एक अहिंसावादमें और अन्य धर्मोके सिद्धान्तोंमें यही अन्तर दोष समझा जाने लगा व हमला करनेवालोको दो है कि अन्य धर्मों में कहीं, कहीं आपत् धर्मके तौर पर दार्शनिकविचार-धाराओं के मिलान करने में बौद्धिक-धर्महिंसा स्वीकृत की गई है, किन्तु निरे उपयोगितावाद- का अधूरापन बतानेका अवसर मिला । इसे दूर करनेके की भित्ति पर जैन-धर्म हिंमाकी स्वीकृति नहीं देता। जैन लिए बड़ी-बड़ी सभाएँ कीगई, पर नतीजा माशाजनक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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