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________________ अनेकान्त [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ - - संस्कृति टीका में भी ज्यों का त्यों ऐसा ही कथन मिलता अपेक्षा म्लेच्छ ही कहलाते हैं, संयमोपलब्धिकी सम्भाहै। ये दोनों महान् प्रमाण नीचे उद्धृत किये जाते हैं - बना होनेके कारण; क्योंकि इस प्रकार की जाति वालों के लिये दीक्षाकी योग्यता का निषेध नहीं है।' "जइ एवं कुदो तत्थ संजमग्गहणसंभवो त्ति। णासंकणिज्जं । दिसाविजयदृचक्कवट्टिखंधावारेण इन लेखोंमें श्रीश्राचार्य महाराजने यह बात उठाई सह मज्झिमखंडमागयाणं मिलेच्छरायाणं तत्थ है कि म्लेच्छ-भूमिमें पैदा हुये जो भी म्लेच्छ हैं उनके चक्कवहिादीहिं सह जादवेवाहियसंबंधाणं संजम- सकलसंयम होनेमें कोई शंका न होनी चाहिये-सभी पडिवत्तीए विरोहाभावादो। अहवा तत्तत्कायकानां म्लेच्छ सकलसंयग धारण कर सकते हैं, मुनि हो सकते चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेषत्पन्ना मातृपक्षापेक्षया हैं और यथेष्ट धर्माचरणका पालन कर सकते हैं । उनके स्वयमकर्मभूमिजा इतीह विवक्षिताः ततो न वास्ते कोई खास रोक-टोक नहीं है । अपने इस सिद्धान्त किञ्चिद्विप्रतिषिद्धम् । तथाजातीयकानां दीक्षाहत्वे को पाठकों के हृदय में बिठानेके वास्ते उन्होंने दृष्टान्त प्रतिवेधाभावादिति ।" रूपमें कहा है कि जैसे भरतादि चक्रवर्तियों की दिग्वि-जयधवला, आग-प्रति, पत्र ८२७-२८ जयके समय उनके साथ जो म्लेच्छ राजा आये थे अर्थात् जिन म्लेच्छ राजाओंको जीत कर अपने साथ “म्लेच्छभूमिज-मनुष्याणां सकलसंयमग्रहणं आर्यखण्ड में लाया गया था और उनकी कन्याओं का कथं भवतीति नाशंकितव्यम् । दिग्विजयकाले चक्र विवाह भी चक्रवर्ती तथा अन्य अनेक पुरुषोंके साथ वर्तिना सह आर्यखण्डमागतानां संयमप्रतिपत्ते हो गया था, उन म्लेच्छ राजाओंके संयम ग्रहण करने रविरोधात् । अथवा तत्क-यानां चक्रवादि परिणी में कोई ऐतराज नहीं किया जाता–अर्थात् जिस प्रकार तानां गर्भेषत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदंश यह बात मानी जाती है कि उनको सकलसंयम हो भाजः संयमसम्भवात् तथाजातीयकानां दीक्षाहत्ये सकता है उसी प्रकार म्लेच्छखंडों में रहने वाले अन्य प्रतिषेधाभावात् ।” सभी म्लेच्छ आर्यखण्डोद्भव अार्यों की तरह सकल--लब्धिसार-टीका (गाथा १९३ वीं) संयम के पात्र हैं। इन दोनों लेखोंका भावार्थ इस प्रकार है कि--- दूसरा दृष्टान्त यह दिया है कि जो म्लेच्छकन्याएँ 'म्लेच्छ भूमिमें उत्पन्न हुए. मनुष्योंके सकल संयम कैसे चक्रवर्ती तथा अन्य पुरुषों से व्याही गई थीं उनके गर्भ हो सकता है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि से उत्पन्न हुए पुरुष यद्यपि मातृपक्ष की अपेक्षा म्लेच्छ दिग्विजय के समय चक्रवर्तीके साथ आए हुए उन म्लेच्छ राजाओंके, जिनके चक्रवर्ती आदिके साथ वैवा *म्लेच्छखण्डों में तो काल भी चतुर्थ वर्तता है; जैसा कि त्रिलोकसार की निम्न गाथा नं०८८३ हिक सम्बन्ध उत्पन्न हो गया है, संयमप्राप्तिका विरोध से प्रकट हैनहीं है; अथवा चक्रवर्त्यादि के साथ विवाही हुई उनकी भरहइएवदपणपण मिलेच्छखण्डेसु खयरसेढीसु । कन्याओं के गर्भ से उत्पन्न पुरुषोंके, जो मातृपक्षकी दुस्समसुसमादीदो, अंतोत्ति य हाणिवड्ढी य ॥
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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