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________________ २२६ अनेकान्त [पोष, वीर-निर्वाण सं० २४६५ - (१०) श्री पं० नाथूराम प्रेमी, बम्बई:- गए हैं । गोत्रकर्म सम्बन्धीलेख समाजके लिए बड़ा "सभी महत्वके ऐतिहासिक लेख पढ़ गया ही उपयोगी सिद्ध होगा।" । है। आपके दोनों लेख बहुत महत्वके हैं। पूज्य (१५) श्री पं० सुन्दरलाल वैद्य, दमोह:सूरजभानुजीका लेख वास तौरसं पढ़ा। अन्तर “पत्रका कलंवर महत्वपूर्ण है । लेखमाला द्वीपजोंके अतिरिक्त सारे मनुष्योंको उच्चगोत्री यत- पटन एवं मनन करनेस तो चित्तमें प्राचीन स्मृति लाना बिल्कुल मौलिक ग्बोज है। यह श्रेय आप- तथा नवीन उत्साह आलोकित होने लगता हैको ही है कि आपने उत्साहित करके इस अवस्था- पत्रके प्रत्येक स्थलमें अवश्य ही कोई न कोई में भी उनस लिखवा लिया।" नवीन बात मिलती है। सम्पादन कलाके मर्मज्ञ (११) श्री० पं० लोकनाथ शास्त्री, मूडविद्री:- वृद्ध सम्पादकजाके सम्पादकीय लेखोंमें नवयुवकों ___ "आपने जिस महन्ध कार्यके करनका-'अने. जैमा उत्साह कूट कूटकर भग हुआ है । मैं पत्र कान्त' को पुनरूजीवन करनेका बीड़ा उठाया है, की रीति-नीति पर मुग्ध हैं तथा चाहता हूँ कि वह सर्वथा मगहनीय तथा प्रशंसनीय है।... हमारे समाजके विद्वान व धार्मिक वर्ग पत्रको आपके मम्पादकीय लेग्य और श्री मृरजभानुजी पूर्वम्मृतिके प्रकाशमें लाने के लिए हर तरहसे वकीलके (गोत्रकाशित ऊँच नीचता) वगैरह प्रयत्नशील होंगे।" लेख विचारणीय तथा मननीय हैं।" (१६) श्री वसन्तलाल (हकीम), झाँसी:(१२) श्री० पं० उपमन जैन एम.प.पल.एल.बी. “'अनेकान्त'का रूप मनको मोहित करनेवाला __"इम पत्रकी उपयोगिताक सम्बन्धमें तो कहने है तथा उसमें संकलित लेखादि, जो कि विकास की आवश्यकता ही नहीं; विद्वान म्बयंहो भलीभांति रूप विद्या और बुद्धिद्वारा लिखे गए हैं, वे पठनीय जानते हैं।" ही नहीं बल्कि हृदयमें बिठानेके योग्य हैं।" (१३) श्री राजेन्द्रकुमार 'कुमरेश', कोटा:- (१७) बा० माईदयाल वी. ए. (ऑनर्स)मेलसा: "सुयोग्य सम्पादन, सुन्दर प्रकाशन, उच्च- अनेकान्त' के लेखोंके बारे में कुछ लिखना आदर्श, धार्मिकविचार और भिन्न भिन्न विषयोंपर सूर्यको दीपक दिखाना है।" अन्वेषणात्मक लेख 'अनेकान्त'की विशेष (१८) श्री० कामताप्रसाद, सम्पादक 'वीर' अलीगंज ग्वूबियाँ हैं।" "अनेकान्त' जैसे पहले एक सुन्दर बहुमूल्य (१४) श्री गुणभद्र, गजचम्ममाश्रम अगासः- विचार-पत्र था, वैसा ही अब भी है । उसमें उसके "समाजमें ऐसे पत्रकी बड़ी भारी आवश्यकता सुयोग्य सम्पादककी मौलिक गवेषणाएँ एवं अन्य थी जो तुलनात्मक दृष्टिस लेबोंद्वारा जैनधर्मका विद्वानोंकी सुसंकलित रचनाएँ पठनीय हैं। विद्वान् प्रचार कर सके । पत्रको नीतिको देखते हुए और सामान्य पाठक इससे समानलाभ उठा सकते अनुमान होता है कि वह भविष्यमें सर्वप्रिय हो हैं।हम अनेकान्तकी उत्तोसर उन्नतिके इच्छुक हैं।" सकेगा। इसके सभीलेम्व अनुसन्धान पूर्वक लिखे (क्रमशः)
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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