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________________ अनेकान्त [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ करते थे, जिनके नाम उत्सर्पिणो तथा अवसर्पिणी विकासवाद तथा ह्रासवाद है। डरविनका विकासवाद थे । यथा : एवं अन्य विद्वानोंका ह्रासवाद एकान्तवाद हैं; परन्तु उत्सर्पिणी युगाधं च पश्चादवसर्पिणी युगाधं च । जैन-धर्मने प्रारम्भसे ही वस्तुके वास्तविक-स्वरूपमध्ये युगस्य मुषमादावन्ते दुष्णमेन्दच्चात ॥ का कथन किया है। संसारमें हम विकास और -आर्य सिद्धान्त, ३, ९। न ह्रास दोनों ही देखते हैं, इसलिये जैनशास्त्रने दोनों पक्ष माने हैं । जैनफिलासफीकी तरह वर्तमान अर्थात-युगके दो भाग हैं, प्रथम युगार्धका विज्ञान भी इस बातको स्वीकार करना है कि कभी नाम उत्सर्पिणी तथा दूसरेका अवसर्पिणी है। तो विकासका प्राधान्य होता है और कभी ह्रामका । उत्मर्पिणीके मध्यवर्ती ६ विभाग हैं और इसी जब विकासका प्रधान्यत्व होता है तब उत्सप्रकार अवसर्पिणीक भी ६ ही विभाग हैं । इन १२ पिणीकाल कहलाता है और जब हास प्रधान विभागोंके नाम सुषमा-सुषमा आदि तथा दुषमा- होता है तो उसको अवसर्पिणीकाल कहते दुपमा आदि हैं-उत्सर्पिणीके ६ विभागोंके नाम हैं। इन दोनोंके जो सुषमा-सुपमा आदि मुषमा सुपमा आदि और अवसर्पिणीके विभागों- भेद हैं जैन शास्त्रोंमें उनका नाम भार हैं। के नाम दुपमा-दुपमा आदि हैं। यह 'आरे' कालचक्रकी संज्ञाभी जैनियोंकी ही यदि उपर्युक्त कथनके साथ वैदिक ज्योतिप- परिभाषा है-अन्य मतोंमें इसके लिएभी कोई ग्रंथ 'आर्य सिद्धान्त' का नाम न रखा जाय तो स्थान नहीं है। हाँ वैदिक साहित्यमें आरोंका कुछ कोई भी व्यक्ति इसको वैदिक सिद्धान्त कहनेके वर्णन ज़रूर है । यथालिए उद्यत न होगा; क्योंकि मूलरूपमें उपर्युक्त छादशारं न हि तज्जराय। मान्यता शुद्ध जैन-धर्म की ही है-वर्तमान समयमें जितने भी मत हैं उनमेंसे किसीके भी यहाँ ३० मं० १ सू० १६४ मन्त्र ११ उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी आदि शब्दोंका व्यवहार अर्थात्-१२ आरे सूर्यकी वृद्धावस्थाके लिये नहीं है *। नहीं हैं । अभिप्राय यह है कि सूर्य नित्य सनातन ___ जैन-धर्मके सर्वमान्य तत्त्वार्थसूत्रमें इनका है। न कभी उत्पन्न होता है और न कभी नष्ट स्पष्ट वर्णन है । तथा प्रत्येक बाल-वृद्ध जैन उत्स- होता है । अन्य अनेक स्थानों में भी इन अारोंका पिणी-अवसर्पिणीको तथा उनके सुषमा-सुषमादि कुछ कथन है । परन्तु संसारके वास्तविक स्वरूप और दुषमा-दुषमादि विभागोंको जानता ही नहीं को तदनुकुल सुन्दर शब्दोंमें वर्णन करनेका श्रेय किन्तु कंठस्थ तक रखता है। इसी कालचक्रका नाम जैन-धर्मको ही प्राप्त है । उत्सर्पिणी और अवस * शब्द कल्पद्रुम कोष और आप्टेकी संस्कृत इंगलिश डिकशनरीमें भी इसे जैनियोंकी ही मान्यता बतलाया है। ...-सम्पादक । भरतैरावतयोड़िहामौ षटसमयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ॥३-२७॥
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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