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________________ वर्ष २, किरण ५ ] अदृष्ट शक्तियां और पुरुषार्थ गीतों में मिलती है । उस समय आर्य लोग बादल, बिजली, आग, पानी आदि प्राकृतिक शक्तियोंको देवता मान कर अपनी इच्छा पूर्ति के लिये उनसे प्रार्थना रूप जो गीत गाया करते थे उनका संग्रह होकर ही ये चार वेद बन गये हैं । इन गीतोंके द्वारा इन्द्र, अग्नि, वायु, जल और सूर्य आदिकसे यह प्रार्थना की गई है कि लड़ाई में तुम हमारी विजय कराओ, हमारे वैरियोंका नाश करो, उनकी टांग तोड़ो और गर्दन मरोड़ो, उनकी बस्तियाँ बर्बाद करो, हमको सुख सम्पति दो, समृद्धिशाली करो, सन्तान दो, बल दो, पराक्रम दो और धन्यधान्य दो | इन देवताओंको प्रसन्न करनेके वास्ते वे भेड़, बकरी आदि पशु अग्नि में भस्म करते थे और पूर्व तथा भुना अन्न भी चढ़ाते थे । कुछ समय पीछे अधिकाधिक बुद्धिका विकास होने पर इनका यह भी विचार होने लगा कि धरती, आकाश, सूरज, चान्द, हवा, पानी आदि सब ही वस्तुओं का कोई एक नियन्ता भी ज़रूर है, जो इन सबको नियम रूपसे चला रहा है। इस प्रकार अब उनमें सर्व शक्तिमान एक ईश्वर के मानने की भी प्रथा शुरू हुई, साथही स्तुति करने और भेंट चढ़ाने से ख़ुश होकर वह भी हमारे कार्य सिद्ध कर देता है यह मान्यता बराबर जारी रही । फिर होते होते जीवका भी ख्याल आया कि यह देहसे भिन्न कोई नित्य पदार्थ हैं, ज्ञानवान होने से ईश्वरका ही कोई अंश है, जो इच्छा, द्वेष आदि मोह माया में फँसकर संसारके दुख-भोग रहा है। इसके बाद कालक्रमसे यह भी माना जाने लगा कि मनुष्य, कुत्ता, बिल्ली, कीड़ा, मकौड़ा, चील, कबूतर आदि सबही पर्यायों में यह जीव अपने कर्मानुसार भूमण करता फिरता है, ईश्वर सर्व शक्तिमान और सर्वज्ञान सम्पन्न होनेके कारण जीवोंके कर्मोंका न्याय करता रहता है, बिल्ली, कुत्ता आदि बनाता रहता है, और सुख तथा दुख देता रहता है, वह न्यायवान है, सबके कर्मोंको जानने वाला है, इस कारण जो जैसा करता है, उसको वैसाही फल देता है । यह सब कुछ हुआ, परन्तु यह मान्यता फिर भी उसही जोर शोर के साथ ३१३ कायम रही कि अपनी स्तुति और बड़ाईको सुनकर अपनी पूजा-प्रतिष्ठा से अपनी मान मर्यादा पूरी हुई देख कर वह न्यायकारी ईश्वर हमारे सग्रही कष्ट दूर कर देता है, हमारी मनोकामनायें भी सब पूरी कर देता है। इसीसे "मेरे अवगुण मत न चितारो नाथ ! मुझे अपना जान उबारो" जैसी प्रार्थनाएँ बराबर चली आती है। फल इसका यह होता है कि संसार के मोही जीव पाप कर्मोंसे बचना इतना ज़रूरी नहीं समझते हैं, जितना कि शक्तिशाली ईश्वरकी भक्ति, स्तुति और पूजाके द्वारा उसको ख़ुश रखना ज़रूरी समझते हैं । मोहक कैसी बड़ी विचित्र महिमा है कि सर्वश, सर्व शक्तिमान् और पूर्ण न्यायकारी एक ईश्वरको कर्मोंका फल देनेवाला मानते हुए भी मनुष्योंके मोहवश ऐसी २ अद्भुत मान्यतायें भी इस हिंदुस्तान में प्रचलित होजाती हैं कि गङ्गास्नान करते ही जन्म-जन्मके सब पाप नष्ट हो जाते हैं ! कौनसा मूर्ख है जो ऐसे सस्ते सौदेको स्वीकार न करे। नतीजा इसका यह होता है कि बड़े-बड़े कहाज्ञानी, साधु-संन्यासी, अनेक पन्थों और सम्प्रदायोंके यांगी, बड़े-बड़े विद्वान और तार्किक, राजा और धनवान्, स्त्री और पुरुष, पापी और धर्मात्म, सभी प्रांय मीचकर गङ्गामें गोता लगाने को दौड़े आते हैं. गंगाके पडोंकी द्रव्य चढ़ाते हैं, और कृतार्थ होकर ख़ुशी ख़ुशी घर जाते हैं । समझ लेते हैं, कि पिछले पाप तो निबटे आगेको जय अधिक पाप संचय होजाएँगे तब फिर एक गोता लगा आएँगे । इसमें भी आसान तरकीब मन्त्रोंकी है। किसी के सिर में दर्द होगया, वर आगया, आंख वा दाड़ दुखने लगी, पीलिया होगया, जिगर बढ़ गया, तिल्ली होगई, दूध पीते बच्चेने माताकी छाती में चोट मारदी, गरज़ चाहे किसी भी कारण से कोई भी रोग शरीर में होगया हो, उसकी चिकित्सा किसी वैद्यसे करानी निरर्थक है, शरीरकी बिगड़ी हुई प्रकृतिको श्रपधियों के द्वारा ठीक करना व्यर्थ है-म किसी मन्त्रवादीके पास चले जाइये, उसके कुछ शब्द उच्चारण करतेही सब रोग दूर होजायगा ! सांप ने काट लिया हो, बिच्छू भिड़ ततैया दिने डक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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