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वर्ष २, किरण १]
गोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता
हारोंको छोड़कर दिनप्रतिदिन उन्नति करते चले जा रहे अर्थात्-उच्च गोत्रके उदयके साथ अन्य कारणोंके हैं और सभ्य बनने लग गये हैं। इन्हीं में से जो लोग मिलने से आर्य और नीचगोत्रके उदय के साथ अन्य
अरबवालोंके द्वारा पकड़े जाकर अमरीका में गुलाम कारणांके मिलनेसे म्लेच्छ होता है *। भावार्थ जो आर्य - बनाकर बेचे गये थे उन्होंने तो ऐसी अद्भुत उन्नति है उसके उच्चगोत्र का उदय ज़रूर है और जो म्लेच्छ है
करली है कि जिसको सुनकर अचम्भा होता है। उनमेंसे उसके नीच गोत्रका उदय अवश्य है । आर्य और म्लेच्छ बहुतमे तो आजकल कालिजों में प्रोफैसर हैं और कई कौन हैं, इसको श्रीअमृतचन्द्राचार्यने तत्वार्थसार अध्याय अन्य प्रकारसे अद्वितीय विद्वान हैं, यहाँ तक कि कोई १, श्लोक २१२ में इस प्रकार बतलाया हैकोई तो अमरीका जैसे विशाल द्वीपके मुख्य शासक
आर्यखण्डोद्भवा आर्या म्लेच्छाः कंचिच्छकादयः। (1Presirlent) रह चुके हैं । वास्तवमें सबही कर्मभूमिज म्लेच्छखराडोद्भवा म्लेच्छा अन्तरद्वीपजा अपि ॥ गर्भज मनुष्यांकी एक मनुष्य जाति है, उनमें परस्पर ।
अर्थात् जो मनुष्य आर्यखण्ड में पैदा हों वे सब घोडे.बैल जैसा अन्तर नहीं है, सभी में सांसारिक और आर्य हैं, जो म्लेच्छखण्डोंमें उत्पन्न होने वाले शकादिक परमार्थिक उन्नति के ऊँचेसे ऊँचे शिखरपर पहुँचने की हैं वे सब म्लेच्छ हैं। और जो अन्तरद्वीपोंमें उत्पन्न योग्यता है, और वे सब ही नारकियों, तियचों तथा अन्तर- होते हैं वे भी सब म्लेच्छ ही हैं । श्लोकवार्तिको म्लेच्छोंद्वीप जोंग बिल्कुलही विलक्षण हैं और बहुत ज्यादा ऊँच
का पता इस प्रकार दिया है पदपर प्रतिष्ठित है-इसीस उच्चगोत्री हैं।
"तथान्तद्वीपजा म्लेच्छाः परे स्युः कर्मभूमिजाः।"... गोमटसार और श्रीजयधवल आदि सिद्धांत ग्रन्थों "कर्मभूमिभवा म्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः।"... के अनमार यह बात सिद्ध करनेके बाद कि आर्य और अर्थात म्लेच्छोंके 'अन्तरद्वीपज' और 'कर्ममिज' म्लेच्छ सब ही कर्मभूमिया मनुष्य उच्चगोत्री हैं, अब हम ऐसे दो भेद हैं । जो कर्मभूमिमें पैदा हुए. म्लेच्छ है वे श्रीविद्यानन्द स्वामीके मतका उल्लेख करते हैं, जो उन्हों
यवन आदि प्रसिद्ध हैं । इससे स्पष्ट है कि श्रीविद्यानन्द ने श्लोक वार्तिक अध्याय ३, मूत्र ३७ के प्रथम वार्तिक
आचार्यने यवनादिकको म्लेच्छखण्डोद्भव म्लेच्छ माना की निम्न टीकाम दिया है
है, और इस तरह उनके तथा अमृतचन्द्राचार्य के कथन “उच्चैर्गोत्रोदयादेाः , नीचैर्गोत्रोदयादश्च की एक-वाक्यता सिद्ध होकर दोनों की संगति ठीक बैठ म्लेच्छाः।”
जाती है...... शकादिक और यवनादिक कहने में वस्तुतः
* श्री गोम्मटसारादि सिद्धान्त ग्र-थों के उक्त कथनकी रोशनी में विद्यानन्दाचार्यका यह आर्य-म्लेच्छ विषयक स्वरूप-कथन कुछ सदोष जान पड़ता है। पूज्यपाद-अकलंकादि दूसरे किसी भी प्राचीन आचार्य का ऐसा अभिमत देखने में नहीं पाता । अतः जिन विद्वानों को यह कथन निदोंप जान पड़े उनसे निवेदन है कि वे स्वरूपकथन में प्रयुक्त हुए 'श्रादि' शब्द के वाच्य को स्पष्ट करते हुए भागम तथा सिद्धांतों ग्रन्थों के इस कथन की संगति ठीक करने की कृपा करें, जिससे यह विषय अधिक प्रकाश में लाया जा सके।
----सम्पादक