SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२९६५ है? दो चार रोजकी तामीर-खर्चके लिये जितनी रकमकी गरके हाथ चूम लेनेको जी चाहता है और बेसाख्ता ज़रूरत है, उसे अगर मैं लूंगा तो सारी बिरादरीसे लूंगा हरसुखरायजीकी इस सुरुचिके लिये वाह-वाह निकल वर्ना एकसे भी नहीं।" पड़ती है। श्री जिनभगवान्का प्रतिविम्ब इस वेदीमें जिस ___ हील-हुज्जत बेकार थी, हर जैन घरसे नाममात्रको पापाण-कमल पर बिराजमान है वह देखते ही बनती चन्दा लिया गया। मन्दिर बनकर जब सम्पूर्ण हुअा है। यद्यपि प्राचीन तक्षणकलासे अनभिज्ञ और जापानी तो बिरादरीने मिन्नतें कीं-राजा साहब मन्दिर श्रापका टाइलोंसे आकर्षित बहुतसे जैनबन्धुश्रोंको यह है, आप ही कलशारोहण करें । राजा साहब फ्गड़ी मन्दिर अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सका है, फिर उतारकर बोले-भाइयो ! मन्दिर मेरा नहीं पंचायतका भी जैनोंके लाख-लाख छुपाने पर भी विदेशोंमें इसकी है, सभीने चन्दा दिया है, अतः पंचायत ही कलशा- भव्य कारीगरीकी चर्चा है और विदेशी यात्री देहली रोहण करे और वही श्राजसे इसके प्रबन्धकी ज़िम्मे- आने पर इस मन्दिरको देखनेका ज़रूर प्रयत्न करता दार है।" है । यह मन्दिर १७६ वर्ष पुराना होने पर भी नए लोगोंने सुना तो अवाक रह गये, अब उन्होंने इस मन्दिरके नामसे प्रसिद्ध है। थोड़ीसी रकमके लिये चन्दा उगाहनेके रहस्यको इस मन्दिरकी जब प्रतिष्ठा हुई थी, तो तमाम कीमती समझा। ___सामान मुसलमानोंने लूट लिया था, किन्तु बादशाहके मन्दिर श्राज भी उसी तरह अपना सीना ताने हुक्मसे वह सब सामान लुटेरोंको वापिस करना पड़ा। हुए. गत गौरवका बखान कर रहा है। इस मन्दिरकी हरसुखरायजी शाही खजाँची थे और बादशाहकी ओरनिर्माण-कला देखते ही बनती है। समवशरण में से उन्हें राजाका खिताब मिला हुआ था। इन्हींके संगमरमरकी वेदीमें पच्चीकारीका काम बिल्कुल अनूठा सुपुत्र सेठ सुगनचन्दजी हुए हैं। इन्हें मी पिताके बाद और अभूतपूर्व है । कई अंशोंमें ताजमहलसे भी अधिक राजाकी उपाधि और शाही खजाँचीगीरी प्राप्त हुई थी बारीक और अनुपम काम इस वेदी पर हुअा है । वेदी- और वह ईस्टइण्डिया कम्पनीके शासनकाल तक इन्हीं में बने सिंहोंकी मूछोंके बाल पत्थरमें खुदाई करके के पास रही। इनका जीवन-परिचय अगली किरणमें काले पत्थरके इस तरह अंकित किए गए हैं कि कारी- देखिये। परोपकार जाइयो तहाँ ही जहाँ संग न कुसंग होय, जड़से उखाड़के सुखाय डारे मोहि, कायरके संग शूर भागे पर भागे है। मेरे प्राण घोट डारें धर धुओंके मकानमें । फूलनकी बासना सुगन्ध भरे बासनामें, मेरी गाँठ काटें मोहि चाकूसे तरास डारे, कामिनीके संग काम जागे पर जागे है। अन्तरमें चीर डारे धरें नहीं ध्यानमें । घर बसे घर पै बसौ, घर वैराग कहाँ, स्याही माहि बोर-बोर करें मुख कारो मेरो, काम, क्रोध, लोभ, मोह पागे पर पागे है । करू मैं उजारो तोकू ज्ञानके जहानमें । काजरकी कोठरीमें लाखहु सयानो जाय, परे हूँ पराये हाथ तन परोपकार, काजरकी एक रेख लागे पर लागे है ॥ चाहै घिस जाऊँ यूँ कहै कलम कानमें । -भज्ञात् -कविरत्न गिरधर शर्मा
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy