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________________ ६४ अनेकान्त [ वर्ष २, किरण १ न्यायमंजरी (पृ०६६) के इमी प्रकरणमें गोपीनाथ कविराजने अवश्य ही उसे सन्देह-कोटिशंका की है कि-'प्रथम आलोचन ज्ञानका फल में रक्खा है। उपादानादिबुद्धि नहीं हो सकती ; क्योंकि उसमें भट्ट जयन्तने कारकसाकल्यको प्रमाण माना कई क्षणका व्यवधान पड़ जाता है ? इसका है तथा प्रत्यक्ष-लक्षणमें इन्द्रियार्थसन्निकर्षात्पन्नउत्तर देते हुए मंजरीकारने 'आचार्याः' करके उपा- त्वादि विशेषणोंसे स्वरूप-सामग्री-विशेषण-पक्ष न देयता ज्ञानको उपादानबुद्धि कहते हैं। इस मतका मानकर फल-विशेषण-पक्ष स्वीकृत किया है। उल्लेख किया है । इस 'प्राचार्याः' पद पर भी म० व्योमवती टीकाके भीतरी पर्यालोचनसे मालूम म० गंगाधर शास्त्रीने 'न्यायवार्तिक-तात्पर्यटीका- हाता है कि-व्यामशिवाचार्य भी कारकसामग्रीयां वाचस्पति मिश्रा, ऐमा टिप्पण किया है। को प्रमाण मानते हैं तथा फलविशेषण-पक्ष भी न्यायमंजरीके द्वितीय संस्करणकं संपादक सूर्य- उन्होंने स्वीकार किया है। नारायण जी न्यायाचार्यन भी उन्हींका अनुसरण यहाँ यह भी बता देना समुचित होगा कि करके उस बड़े टाइपमें हेडिंग देकर वाचस्पतिका व्योमवती टीका बहुत पुरानी है। मैं स्वयं इसी मत ही छपाया है। लेखमालाके अगले लेखमं व्योमशिवाचार्य के मंजरीकारने इग मतके बाद भी एक व्या. विषयमें लिखूगा । यहाँ तो अभी तककी सामग्री ख्याताका मत दिया है जो इम परामर्शात्मक के आधार पर इतनी प्राक सूचना की जा सकती उपादेयता ज्ञानको नहीं मानता। यहाँ भी यह है कि जयन्तको व्योमशिवके ग्रन्थोंसे कारकविचारणीय है कि--यह मत स्वयं वाचस्पतिका है साकल्य, अनर्थजत्वात् स्मृतिको अप्रमाण मानना, या उनके पूर्ववर्ती उनके गुरुका ? यद्यपि यहाँ फलविशेषणपक्ष, प्रत्यक्षलक्षण सूत्र में 'यतः' पदका सन्होंने अपने गुरुका नाम नहीं लिया है, तथापि समावेश आदि विषयोंकी सूचनाएँ मिली है। व्योमवती जैसी प्रशस्तपादकी प्राचीन टीका (पृ० ५६१ ) में इसका स्पष्ट समर्थन है, तब इस म ट जपन्तका समयावधि भट्ट जयन्तको समयावधि मतकी परम्परा भी प्राचीन ही मानना होगी। जयन्त मंजरीमें धर्मकीर्तिके मतकी समा और 'प्राचार्याः' पदसे वाचस्पति न लिए जाकर लोचनाके साथ ही साथ उनके टीकाकार धर्मोत्तरव्योमशिव जैसे कोई प्राचीन आचार्य लेना होंगे। की आदिवाक्यकी चर्चाको स्थान देते हैं। तथा मालूम होता है म० ग० गंगाधर शास्त्रीने 'जातश्च प्रज्ञाकरगुप्त के 'एकमेवेद हर्षविषादाधनेकाकारसम्बद्धनेत्येकः काल: इस वचन का वाचस्पतिका विवर्त पश्यामः तत्र यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम्' मानने के कारण ही दो जगह 'आचार्याः' पद पर (भिक्षु राहुल जीका वार्तिकालङ्कारकी प्रेसकापी 'वाचस्पतिमिश्रा ऐसी टिप्पणी करदी है, पृ० ४२९ ) इस वचनका खंडन करते हैं, (न्यायजिसकी परम्परा चलती रही । हाँ, म. म. मंजरी० पृ०७४)।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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